दीवाली
धन वैभव संपदा से आकंठ
भरपूर यह दीवाली जमती नही
मुझे अपने बचपन की दीवाली
है याद आ रही बरबस अभी।
अब की सोकाल्ड रंगोलियों में
वह कसक और अपील नहीं
जो हमारे बनाये नन्हे घरौंदों में
निरापद वे भले ही वक्ती ही सही।
वाह कितना सुंदर स्वाद व महक
होता था दलबेशन के लड्डुओं में
खसखस के लड्डू व मूंग या
उरद के देशी घी में बने मग्दलो में।
आज की इन नूतन मिठाइयों में
अब वह बात कहाँ होती है
उस जमाने की मिठाइयों हेतु
हाय कितनी प्रतीक्षा होती थी।
सप्ताह भर पूर्व ही हर घर
महक उठते थे इनकी सुगंधों से
बची खुची कसर पूरी होती थी
चीनी के शेर हाथी के खिलौने से।
माह पूर्व से ही घर घर की सफाई
रंग रोगन सबके लिए मस्ट होती थी
हम भी मजदूरों संग दो चार कूंची
चलाते, एक माहौल बनी होती थी।
उस समय के चिटपुटिये, फुलझड़ी
मताबी,अनार, बीड़ी बम कहाँ पाते है
आज के तमाम शोर करते पटाखों को
वे बाखूबी तबियत से बस मात देते है।
शाम को अम्मा सजा धजा कर हमें
दिये की थाली संग मंदिर भेजती थी
हर मंदिर में चढ़ाने को थाल में दिया
संग बेसन के चार लड्डू रख देती थी।
हमारा प्रयास बस किसी तरह दो
लड्डू में ही सब देवता प्रसन्न हो जाये
दो किसी भी तरह बचा कर अंतिम
में पूजा के बाद हमारे काम आ जाये।
आज सोचता हूँ जब उन प्रहसन
व नदानियत से भरे रोचक प्रसंगों को
निर्मेष मन बरबस ही कर देता है
एक बार फिर उस बचपन में लौटने को।