दीवार का साया
मेल जोल था बड़ा, साये का दीवार से
धूप से,राहत बड़ी थी साये को दीवार से
जब तक दिन रहता, मस्तियां होती बहुत
रात से पहले विदा होता साया , दीवार से
दिन भर घटती बढ़ती साये की लंबाईयां
छोटा, कभी बड़ा , हो जाता वो दीवार से
मौसमों की दुहाई, सूरज ऊर्ध्व हो चला
सिमटा साया, बातें होती कम दीवार से
मिट रहे साए ने हिम्मत जुटा के बात की
होगा ऊर्ध्व सूर्य मैं हूंगा अलग दीवार से
क्या तुम मुझे अपने से अलग होने दोगे
टाल दो बिछड़ना,जरा झुको कहा दीवार से
झुकना, दीवार को, बात बड़ी नागवार लगी
साए क्या समझते हो,बड़े हो गए दीवार से
साए का अस्तित्व मिटा पूर्ण, ऊर्ध्वसूरज होते
खिन्न था, जब मिटा था साथ उस दीवार से
उस रोज रात धरती कांपी, तूफान आया
ढह सारी की सारी, मिट्टी निकली दीवार से
अब न साया था वहां न कहीं दीवार थी
वक्त जीत ही गया था, साए से, दीवार से
डा राजीव “सागर”