दीवारों के कान पक गए
पहले वाले मूल्य सभी हैं ,
चलते-चलते
आज थक गए !
चौपालों के वक्षस्थल पर
अद्धे -पौए झूम रहे हैं ,
मुखिया जी की चरण-पादुका
चमचे मिलकर चूम रहे हैं ।
सदियों से जो पड़े मुलम्मे ,
सोने जैसे
अब चमक गए!
किसके घर डाका पड़ना है
किसके घर चोरी होनी है ,
कल फिर किस महिला के सँग में
मिल ज़ोराज़ोरी होनी है ?
झाग फेंकती बातें सुन-सुन ,
दीवारों के
कान पक गए!
चिड़िया अपने पंख दबाकर
हाँफ-हाँफ कर भाग रही है ,
सारा जग निर्दन्द्व सो रहा
रात बिचारी जाग रही है।
जिन्हें बोलना वे सब चुप हैं ,
सदियों से चुप
आज बक गए!
—©विवेक आस्तिक