दीप जलाया है अंतस का,
दीप जलाया है अंतस का,
रक्त सलिल को तेल बनाकर,
टूटा है तारा मेरा भी,
अंबर से वसुधा पर आकर।
छिटकाये पलछिन जीवन के
नीर बहाकर ,सुध बिसराकर
पल-पल के मोहक मनको की
माला के नग – नग बिखराकर
बंद किए सब द्वार सुखो के
क्षणभंगुर दुख से घबराकर
टूटा है तारा मेरा भी,
अंबर से वसुधा पर आकर
गिरगिटिया मतवाले मन ने,
मुझसे क्या -क्या ना करवाया
धूल चढ़ाई मस्तक पर और
फूलों को पग से कुचलाया
श्राद्ध किया अपने सपनो का
मनमाने से भ्रम में आकर.
टूटा है तारा मेरा भी,
अंबर से वसुधा पर आकर।
ओढ़ निशा की छांव घनेरी
उजियारे से आंख चुराई
बांध दिया दिनकर को तम से
अंधियारे को विजय दिलाई
छलकाई गागर पानी की
सहज कुएं के जल को पाकर
टूटा है तारा मेरा भी,
अंबर से वसुधा पर आकर।
©Priya Maithil✍