दीप और अंधकार ~
आज कलयुग के बाद धरती पर, जब अन्धकार था छा गया,
बोली धरती-“हे दीप! अब तेरा प्रकाश कहाँ गया?”
आकाश भी रोया और बोला-“सूरज भी छिप गया कहीं,
पहले क्षितिज से उगता था, लगता है मिट गया कहीं।”
हे दीप! अब तुम भी क्या कर विलाप, सम्पूर्ण निशा बिताओगे?
जलकर तुम ये तम मिटा दो,तभी दीप कहलाओगे।
जलो दीप सबको बता दो,अब सच्चाई का राज रहेगा,
कल तक जो तम था उसका, हर निशाँ आज मिटेगा।
छोड़ दे ये विलाप, विधि का लिखा ही होता है,
फिर क्यों त्यागता तू हिम्मत,क्यों कायरता के वश होता है?
हे दीप ! इस मार्तंड को,आज तुम दो पछाड़,
दे दो इस जगत को,सत्य और निर्वाण।
क्या थी तेरी नीयत,क्या था तेरा निमित्त,
क्यों हुआ तू अन्धकार के समक्ष नमित।
दिखा दो इस तम को,तुम अपनी कान्ति,
की आ जाये इस दुनिया में फिर से क्रान्ति।
न हो तुम अनत, अनित्य की नीव संभालो,
हे दीप! सत्य के स्वामी अब खुद को जला लो।
◆◆©ऋषि सिंह “गूंज”