दीप्ति
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दीप्ति….
रवि ने प्रखर दीप्ति बिखराई
तीक्ष्ण किरणों ने तपन बढाई
ग्रीष्म ने भीषण रूप दिखाया
ज्येष्ठ का मास है आया।
शुष्क हवाएँ उष्ण हो ढली
धूप संग लू भी खूब चली
निर्झरिणी भी जल को तरसे
मेघ भी तो क्षणिक न बरसे
सदन में हर जनजन सिमटा
शयन में यूँ हर दिवस बीता
पथ,गलियारे सब सूने हुए
खग,मनुज व्यग्र व्याकुल हुए
रेत मरुस्थल की तप रही
अग्नि चहुँओर भी जल रही
धरा यूँ अनल कुंड सी बनती
रज वायु संग ढलती बिखरती
तपन प्रतिपल उष्ण भर देती
काया को यूँ विकल कर देती
निढाल पग यूँ थमते जाते
पथिक तरु की छांह निहारते
उद्विग्न धरा प्रतिपल बंटती
स्याह मेघ को यूँ तरसती
बरखा की तब आस लगाते
मनुज नभ की ओर ताकते।।
✍ “कविता चौहान”
स्वरचित एवं मौलिक