दीपावली मंगलमय हो
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आ ज तम पर छा रही निश्चेतना ।
प र्व यह प्रतिमान कुछ ऐसे गढ़े,
स त्य के आलोक की हो गर्जना।
ब लबती दैदीप्य बाती यूँ बढ़े,
को ख में ही मर मिटे तम यातना।
दी प आशा का हृदय में बाल दो
पा स आकर तम अमा का टाल दो
व हम के मग पर पड़े बहके पगों को
ली क से हटकर नवेली चाल दो
मं त्र है संसार में सदभावना
ग रल को भी रोकती जो गले में
ल हू भी अपना निछावर कर रहे
म नचले प्रेमी जगत के भले में
य दि न हो यह मंत्र तो संभव कहाँ
हो सकेगी पर्व की परिकल्पना।
संजय नारायण