‘दीपक-चोर’?
‘दीपक-चोर’?
कभी न , दीप चुराना;
बुझने से, उसे बचाना;
ये जो जगह से हटेगा,
तब यह, बुझ जायेगी;
प्रकाश नही फैलाएगी,
ये बात सदा सताएगी,
फिर नहीं, यह जलेगा;
तब अंधेरा सदा रहेगा;
किलविस बन जाओगे;
प्रकाश फिर न फैलेगा,
कुछ, हासिल न होगा;
सदा, चोर कहलाओगे;
मन का, दीप जलाओ;
तम में , रोशनी लाओ;
रखो,खुद पे तू विश्वास;
फिर सदा जीत मिलेगी,
तू सदा, ज्योति चुराओ;
कभी भी, दीपक नही;
सदा , ही विद्या चुराओ;
कभी भी, ‘पुस्तक’ नही;
धर्म ही है,सबका रक्षक;
बुराकर्म, सबका भक्षक;
परोपकार ही है, सहारा,;
फिर,कहीं कभी भी तुम;
दीपक न, चुराना दुबारा।
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..✍️ पंकज कर्ण
……..कटिहार।।