दीपक।
दीपक तुम उन्मुक्त बहुत हो।
तुमको ये मालूम खूब है जलते जलते बुझ जाओगे।
प्रतिपल घटते तरल नेह के घटते ही तुम चुक जाओगे।
ये सारे बंधन होकर भी उर्ध्वमुखी हो मुक्त बहुत हो।
दीपक तुम उन्मुक्त बहुत हो।
तुम रहते निरपेक्ष जगत से अपना काम किये जाते हो।
कोई अगर सराहे न तो रुष्ट नहीं न पछताते हो।
अपने जीवन से छमता से कर्मों से तुम तृप्त बहुत हो।
दीपक तुम उममुक्त बहुत हो।
घात लगाए घिरे कालिमा बन कर सर्प हवा फिरती हो।
घटती नहीं तुम्हारी आभा काया कितनी भी हिलती हो।
दिखने में कमजोर बहुत तुम साहस से पर युक्त बहुत हो।
दीपक तुम उन्मुक्त बहुत हो।