दीनानाथ दिनेश जी से संपर्क
दीनानाथ दिनेश जी से संपर्क : मेरा सौभाग्य
किया श्री हरि गीता से गुंजायमान आकाश
दीनानाथ दिनेश रामपुर लाए रामप्रकाश
अंतिम बार दिनेश जी को मैंने 1974 में उनकी मृत्यु से कुछ दिन पहले देखा था। अंतिम दर्शन का यह क्षण बहुत मार्मिक था। दिनेश जी के निवास पर पिताजी श्री रामप्रकाश सर्राफ के साथ मैं भी गया था । पिताजी के पास किसी प्रकार यह सूचना आई थी कि दिनेश जी की तबीयत बहुत खराब है । जब हम लोग वहाँ पहुंचे तो दिनेश जी अचेत अवस्था में बिस्तर पर लेटे हुए थे । वातावरण सन्नाटे में डूबा हुआ था। किसी ने बताया कि आपको याद करते-करते ही बेसुध हुए हैं । सुनकर पिताजी की भावनाएँ और भी द्रवित होने लगीं।
1956 में पहली बार दिनेश जी को पिताजी ने रामपुर बुलाया था । सुंदर लाल इंटर कॉलेज की स्थापना का कार्य सुंदरलाल जी की मृत्यु के उपरांत हो चुका था । उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर किसी राष्ट्रीय संत को बुलाने का पिता जी का विचार था । आचार्य बृहस्पति से जब चर्चा हुई , तब उन्होंने दिल्ली निवासी श्री दीनानाथ दिनेश जी का नाम सुझाया था । सचमुच यह नाम एक अद्भुत वरदान के रूप में प्राप्त हुआ । श्री हरि गीता की अमर रचना से दिनेश जी राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके थे । आकाशवाणी पर उनके प्रवचन बहुत लोकप्रिय हुए थे । उनकी आवाज का जादू सिर पर चढ़कर बोलता था । गीता का उन जैसा महापंडित कोई नहीं था ।
ढाई सौ रुपए का पारिश्रमिक तथा आने-जाने का खर्च ,इन शर्तों के आधार पर दिनेश जी का दिसंबर 1956 में सुंदरलाल जी की पहली बरसी के अवसर पर सुंदर लाल इंटर कॉलेज में गीता प्रवचन का आयोजन हुआ । रामपुर धन्य हो गया । अगले वर्ष पिताजी ने श्री दिनेश जी को चिट्ठी लिखी ,”आपके आगमन के आकांक्षी हैंं। धनराशि कितनी भेजी जाए ? किस प्रकार भेजी जाए ?” दिनेश जी का उत्तर आया ,”अब धनराशि भेजने की आवश्यकता नहीं है । आपकी आत्मीयता ही पर्याप्त है।” सचमुच फिर कभी भी प्रवचन के पारिश्रमिक का प्रश्न ही नहीं उठा । दिनेश जी आते थे ,परिवार के एक सदस्य के रूप में अपनी ज्ञान-सुधा बरसाते थे और जो पुस्तकें लाते थे ,उनमें से जितनी बिक गईं , उसकी धनराशि ले जाते थे तथा जो पुस्तकें बिकने से रह जाती थीं, वह भेंट करके पिताजी को चले जाते थे। प्रारंभ में सुंदर लाल इंटर कॉलेज में दिनेश जी आते रहे। तत्पश्चात 1958 में जब टैगोर शिशु निकेतन खुल गया ,तब पिताजी ने उनका प्रवचन टैगोर शिशु निकेतन में रखवाना शुरू कर दिया ।
1956 से यह सिलसिला शुरू हुआ और मेरा जन्म चार अक्टूबर 1960 में जब हुआ तब दिनेश जी की अमृतवाणी का वातावरण हमारे घर – परिवार और विचारों पर पर्याप्त रूप से होने लगा था। बचपन में कब दिनेश जी को सुनना शुरू किया इसका ध्यान नहीं है । बस यह समझ लीजिए कि किसी की गोद में बैठ कर मैं प्रवचन सुनता रहा हूँगा और धीरे-धीरे उन प्रवचनों में जो अथाह ज्ञान भरा पड़ा था ,उसकी समझ थोड़ी-थोड़ी आने लगी ।
दिनेश जी का अंतिम प्रवचन रामपुर में 1972 में टैगोर शिशु निकेतन के प्रांगण में हुआ था । उस समय दिनेश जी को पैरालिसिस (लकवे) का रोग लग चुका था। इसने उनके शरीर को बहुत आघात पहुंचाया था । दिनेश जी शरीर के बल पर नहीं बल्कि अपने आत्म बल से ही उस वर्ष रामपुर आ गए थे । मंच पर उन्हें कैसे बैठाया जाए, इसके बारे में सोच विचार चला और तब यह तय हुआ कि हमारे घर पर एक शाही आराम कुर्सी जिसमें शेर के मुँह बने हुए हैं, उसको मंच पर रखकर दिनेश जी को उस पर आराम से बिठाने की व्यवस्था हो ,ताकि पालथी मारकर बैठने में जो असुविधा होती है ,उससे बचा जा सके ।
उम्मीद से कहीं ज्यादा दिनेश जी का लंबा प्रवचन रहा । लंबा इसलिए रहा क्योंकि थोड़ी देर प्रवचन देने के बाद जब वह विराम देने की ओर अग्रसर होते थे ,तभी उनकी चेतना में कुछ और प्रवाह आ जाता था तथा विषय लंबा खिंच जाता था । उनकी आवाज में जो असर सन 56 में था ,वह 1972 में भी कायम रहा ।उनका उस समय के भाषण का टेप मेरे पास मौजूद है और मैंने उसके प्रारंभिक अंश यूट्यूब पर डाल रखे हैं । दीनानाथ दिनेश लिखने पर दिनेश जी की आवाज यूट्यूब पर सुनी जा सकती है।
1972 में ही दिनेश जी रामपुर से काशीपुर (उत्तराखंड) भी गए थे । हुआ यह कि पिताजी के प्रिय भांजे अर्थात मेरी बुआ जी के सुपुत्र श्री महेंद्र कुमार अग्रवाल अपना ट्रैक्टरों का व्यवसाय आरंभ करना चाहते थे तथा इस अवसर पर दिनेश जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के इच्छुक थे । वह इस विषय में चर्चा अपने मामा जी अर्थात मेरे पिताजी से कर रहे थे। (दिनेश जी उस साल हमारे घर पर ही ठहरे थे अन्यथा शुरू से उनका अत्यंत भक्ति भाव से ठहराने का इंतजाम पीपल टोला निवासी श्री लक्ष्मी नारायण अग्रवाल रूई वालों के सौजन्य से ही होता था । लक्ष्मीनारायण जी का आतिथ्य अपनी तुलना आप ही था। जब तक लक्ष्मी नारायण जी जीवित रहे , दिनेश जी उनके ही आतिथ्य में ठहरे ।) पिताजी सीधे-सीधे दिनेश जी से कुछ कह सकने में असमंजस की स्थिति महसूस कर रहे थे क्योंकि दिनेश जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। लेकिन दिनेश जी ने समझ लिया कि कुछ विषय ऐसा है, जिसमें झिझक हो रही है । अतः उन्होंने पूछ लिया कि क्या चर्चा चल रही है ? इस पर पिताजी ने उन्हें बताया कि महेंद्र आपको काशीपुर ले जाकर आपका आशीर्वाद प्राप्त करने के इच्छुक हैं। दिनेश जी ने दोनों की भावनाओं को समझते हुए अपनी सहमति प्रदान कर दी । उसके बाद एक कार में बैठकर दिनेश जी काशीपुर गए । उस कार में मैं भी बैठा था। दिनेश जी के साथ-साथ उनकी सबसे छोटी सुपुत्री ,संभवतः संध्या नाम था ,वह भी बैठी थीं। एक प्रकार से पारिवारिक यात्रा थी ।रास्ते में नदी पड़ी और मुझे खूब अच्छी तरह याद है कि दिनेश जी ने किसी से पैसे लेकर नदी में फेंके थे । काशीपुर में दिनेश जी का बहुत शानदार भाषण हुआ ,उसमें उन्होंने अवसर के अनुरूप लक्ष्मी जी की स्तुति से संबंधित अपनी पद्यानुवाद की रचनाओं को गाकर सुनाया था । उनका कंठ तो अनूठा था ही ,अतः वातावरण में जो रसमयता पैदा हुई ,वह काशीपुर के इतिहास का भी एक अविस्मरणीय अध्याय बन गया।
दिनेश जी की मृत्यु के उपरांत श्रीहरि गीता का पाठ प्रारंभ में टैगोर शिशु नि केतन में जन्माष्टमी के अवसर पर होता था । उसके बाद यह हमारे घर पर जन्माष्टमी पर होने लगा क्योंकि रात्रि में विद्यालय जाने और आने में रास्ते में अंधेरा होने के कारण असुविधा रहती थी । 2006 में पिताजी की मृत्यु के बाद भी यह श्री हरि गीता के पाठ की परंपरा बनी हुई है । गीता के प्रति जो आकर्षण दिनेश जी ने पैदा किया, वह अभी भी विद्यमान है और गीता के नए-नए अर्थों को समझने और खोजने का क्रम मेरे द्वारा तो चल ही रहा है ।
दिनेश जी की एक जीवनी-पुस्तक भी मैंने लिखी है तथा वह 2016 में “गीता मर्मज्ञ श्री दीनानाथ दिनेश” शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451