#दीनदयालउपाध्याय #दीनदयाल #पंडितदीनदयालउपाध्याय #25_सितंबर #11फरवरी
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एकात्म मानववादी पंडित दीनदयाल उपाध्याय*
★★★★★★★★★★★★★★★
लेखक : रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
★★★★★★★★★★★★★★★
11 फरवरी 1968 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय (जन्म 25 सितंबर 1916) की मृत्यु हुई थी। मात्र 51 वर्ष का उनका जीवन रहा किंतु जनसंघ के संगठनकर्ता के रूप में उन्होंने सर्वत्र ऐसी छाप छोड़ी कि वह कभी धुँधली नहीं पड़ी। अपनी सादगी और निर्लोभी प्रवृत्ति के कारण वह जनसंघ के लाखों कार्यकर्ताओं के लिए श्रद्धा के केंद्र बन गए । श्रद्धा ,जो सत्ता के शिखर पर बैठने से नहीं मिलती । श्रद्धा ,जो शक्तियों के एकत्रीकरण से भी प्राप्त नहीं होती । श्रद्धा, जिसे खरीदा भी नहीं जा सकता । दीनदयाल जी के प्रति श्रद्धा इसलिए उत्पन्न हुई क्योंकि लाखों कार्यकर्ताओं को लगा कि यह सीधा – सादा सरल व्यक्ति भी उनकी ही तरह राष्ट्र की सेवा के लिए राजनीति में आया है। जोड़-तोड़ से किसी प्रकार सत्ता का सुख प्राप्त करना इस व्यक्ति का उद्देश्य नहीं है – यही देखकर दीनदयाल जी के प्रति कार्यकर्ताओं के मन में श्रद्धा उत्पन्न होती थी। अपवाद-रूप में ही किसी नेता को कार्यकर्ता की श्रद्धा प्राप्त होती है । पंडित दीनदयाल उपाध्याय राजनीति में ऐसी ही अपवाद- रूप विभूति थे । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पाठशाला में शिक्षा ग्रहण करके जनसंघ के माध्यम से राष्ट्र की सेवा का व्रत तो बहुतों ने निभाया , किंतु दीनदयाल जी इस मायने में असाधारण थे कि संगठन के शिखर पर बैठकर भी उनके पैर जमीन पर ही टिके रहे । वह आजीवन कार्यकर्ता ही रहे।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन राष्ट्र के लिए था । उनकी समूची राजनीति राष्ट्र के लिए थी । राष्ट्र ही उनकी पूजा-अर्चना का केंद्र था ।यही उनका लक्ष्य था । यही उनका उपास्य था । इसी की आराधना उन्हें अभीष्ट थी । जनसंघ के माध्यम से वह इसी राष्ट्र की उपासना करते थे । बहुधा राजनीति में लोग पद प्रतिष्ठा धन के लिए आते हैं ,किंतु दीनदयाल जी को ऐसा लोभ कहाँ था ! वह तो भारत माता के ऐसे सपूत थे जिसे माँ की आरती उतारने में ही आनंद आता था ।
राजनीति के झमेले में
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वह अपनी इच्छा से राजनीति में आए भी कब थे ! उन्हें तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जनसंघ में भेजा गया था । ठीक वैसे ही जैसे भरत को राम ने अयोध्या के राजसिंहासन पर बैठने के लिए वन से बलपूर्वक भेजा था । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरु जी ने दीनदयाल जी के इस स्वभाव का बहुत सुंदर चित्रण अपने एक भाषण में इस प्रकार किया है :-
“दीनदयाल जी का राजनीतिक क्षेत्र की ओर झुकाव नहीं था । पिछले वर्षों में कितनी ही बार उन्होंने मुझसे कहा ,यह आपने मुझे किस झमेले में डाल दिया । मुझे फिर से अपना प्रचारक का काम करने दें। मैंने कहा ,भाई तुम्हारे सिवा इस झमेले में किसको डालें ? संगठन के कार्य के प्रति जिसके मन में इतनी अविचल श्रद्धा और निष्ठा है ,वही इस झमेले में रहकर कीचड़ में अस्पृश्य रहता हुआ सुचारू रूप से वहाँ की सफाई कर सकेगा , दूसरा कोई नहीं कर सकेगा ।” (पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन , खंड 1 , प्रष्ठ 10)
संघ में रहकर प्रचारक का काम करने का अभिप्राय क्या है ? इसका अर्थ है कि विचारों के विस्तार का कार्य अपने हाथ में लेते हुए निरंतर नए-नए स्वयंसेवक तैयार करना और इस प्रकार राष्ट्रीयत्व की भावना को निरंतर सुदृढ़ करना । दीनदयाल जी यही चाहते थे । राजनीति में यह सब नहीं होता है। उसमें तो झमेला ही झमेला है । उखाड़- पछाड़ ,जोड़-तोड़ आदि का प्रयोग भी राजनीति में करना पड़ता है । किंतु इन सब में अपने को फँसाते हुए भी मूलभूत आस्थाओं को विस्मृत न होने देना तथा उन्हीं विचारों के आधार पर नए भारत के निर्माण के प्रति अविचल श्रद्धा रखना ,यह दुर्लभ दायित्व श्री गुरु जी ने दीनदयाल उपाध्याय को सौंपा था । वही इसके सुपात्र थे । स्वयं गुरुजी भी संघ के झमेले में कहाँ पड़ना चाहते थे ! उन्हें भी सन्यास का आकर्षण खींचता रहता था। प्रयत्नपूर्वक डॉ. हेडगेवार उन्हें संघ का उत्तरदायित्व सौंपने में सफल हुए थे अर्थात एक सन्यासी ने दूसरे सन्यासी से कहा कि राज सँभालो और वह मना न कर सका । दीनदयाल जी का जनसंघ में कार्य करना कुछ इसी प्रकार का सन्यास-धर्म का निर्वहन है ।
एकात्म मानव दर्शन:-
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सन्यासी वह है जिसे कोई लोभ नहीं है। सन्यासी वह है जिसे सारी वसुधा कुटुंब के समान जान पड़ती है । सन्यासी वह है जिसका कोई शत्रु नहीं होता । सन्यासी वह है जिसके लिए मानव -मानव में कोई भेद नहीं होता । दीनदयाल उपाध्याय ऐसे ही सन्यासी थे । सरल व्यक्ति के हृदय में ईश्वर विराजमान रहता है । दीनदयाल जी का जीवन और चिंतन भी ईश्वरीय आभा से ओतप्रोत था । राजनीति के रेगिस्तान से गुजरते हुए भी उनके चिंतन पर आध्यात्मिकता के ओस- कणों की उपस्थिति साफ नजर आती थी । वह मूलतः एक आध्यात्मिक विभूति थे । एक आध्यात्मिक व्यक्ति जब राजनीति में आएगा तो अध्यात्म की भाषा में ही राजनीति का विस्तार भी करेगा । इसीलिए दीनदयाल जी ने एकात्म मानव दर्शन की परिकल्पना की। जनसंघ के मंच से इस एकात्म मानव दर्शन का शंखनाद हुआ और दीनदयाल जी ने युगोंं- युगों से भारत के सनातन विचार- वसुधैव कुटुंबकम -को मानो पुनर्जीवित कर दिया । उनकी वाणी में कोई ऋषि ,संत या तपस्वी बोलता था । सब मनुष्यों में वही ,एक ही ,आत्मा विद्यमान है -इस शैली में बोलने वाला कोई आध्यात्मिक तपःनिष्ठ व्यक्ति ही हो सकता था । हजारों वर्षों से यही चिंतन धारा तो भारत के संत तपस्वी प्रवाहित करते रहे हैं कि सब प्राणियों में समान आत्मा विद्यमान है । राजनीति के मंच से उसी विचार को कि एक ही आत्मा हर मानव में है, दीनदयाल उपाध्याय ने ही मुखरित किया था । यह असाधारण कार्य था। अध्यात्म की भाषा में राजनीति के मंच से उन जैसा अ-राजनीतिक व्यक्ति ही बोल सकता था । उन जैसा सिद्धांतनिष्ठ तथा आस्थावान व्यक्ति ही आत्म चिंतन की गहराइयों में डूब कर एकात्म मानव दर्शन का प्रतिपादन कर सकता था ।क्या था यह एकात्म मानव दर्शन ? दीनदयाल जी के शब्दों में :-
“मैं शरीर ,मन और बुद्धि नहीं हूँ।अपितु इन सबसे परे रहने वाला आत्मा ही मेरा वास्तविक स्वरूप है । यह अनुभूति अर्थात आत्मज्ञान होना ही आत्म सुख है। एकात्म मानव दर्शन में वह अपेक्षित और आवश्यक तो है ही किंतु साथ ही यह अनुभव करते हुए कि मुझ में जिस परम तत्व का अंश है वही अन्य लोगों में बसता है इस अनुभूति से उत्पन्न होने वाले शरीर, मन, बुद्धि के स्वाभाविक व्यवहार को भी भारतीय जीवन दर्शन के अनुसार रखना इस दर्शन से अभिप्रेत है । “(वही, खंड 2 ,पृष्ठ 33 )
कहने की आवश्यकता नहीं है कि सब मानवों में एक समान आत्मा है -इस सिद्धांत की नींव पर जिस एकात्म मानव दर्शन को दीनदयाल जी ने प्रतिपादित किया ,वह राजनीति के क्षेत्र में तो नया था क्योंकि उस क्षेत्र में तो सिवाय कुर्सी की खींचतान और लोभ के लोगों को और कुछ दिखता ही नहीं था । किंतु दीनदयाल जी के लिए उसमें नयापन कुछ नहीं था । वह तो भारत का युगों पुराना सत्य अपने हृदय की गहराइयों से अभिव्यक्त मात्र कर रहे थे । मनुष्य और मनुष्य को जोड़ने वाला तथा प्रत्येक मनुष्य को एक समान मानने वाला यह एक आत्मा का दर्शन भारत की राजनीति ही नहीं भारत के समस्त विचार पटल पर दीनदयाल जी की अनूठी देन है। दीनदयाल जी के एकात्म मानव दर्शन में जाति -संप्रदाय के भेदों को कोई स्थान नहीं है ।धर्म के आधार पर नफरत तथा रक्तपात इस एकात्म मानव दर्शन को स्वीकार नहीं है । असमानता का कोई भी चिन्ह इस एकात्म मानव दर्शन में असह्य है । अन्य सभी प्रकार के राजनीतिक विवादों में केवल संकुचित भाव से ही कतिपय समस्याओं पर विचार हुआ है किंतु भारतीय संस्कृति के आधारभूत सिद्धांत को मान्य करते हुए सभी प्राणियों में समान आत्मा बसती है ,दीनदयाल जी ने भावी भारत के एक आत्मस्वरूप के संबंध में मानो बहुत बड़ी भूमिका प्रस्तुत कर दी थी ।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की आध्यात्मिक विचारधारा के चलते ही एकात्म मानव दर्शन का जन्म हुआ है । इसके मूल में सब मनुष्यों को सुखी देखने तथा मानव- मानव में भेद न मानने का आध्यात्मिक विचार ही प्रमुख है। दीनदयाल जी के शब्दों में :-
“गहराई में जाकर सोचे तो हमारे ध्यान में आएगा कि मानव – मानव में एकता का अनुभव कराने वाला और सभी मानवों का जीवन सुखी हो ,ऐसी जो मानव मात्र की इच्छा दिखाई देती है उसका प्रेरक निश्चय ही इस दृश्य से निराला कोई इंद्रियातीत
परम तत्व अवश्य ही होगा । वह तत्व इस दिखाई देने वाले जगत में व्याप्त है और वही हर प्राणी के अंतः करण में संपूर्णतः एकात्मता की भावना का निर्माण करता है।” (वही ,खंड 2 , प्रष्ठ 32)
पारिवारिक प्रष्ठभूमि :-
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ऐसे अध्यात्मवादी ,निःस्वार्थ, निर्लोंभी ,सरलता तथा सादगी के पर्याय एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को हुआ । उनके पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद था जो मथुरा जिले के नगला चंद्रभान के मूल निवासी थे। श्री भगवती प्रसाद मथुरा के जलेसर रोड स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के रूप में काम करते थे। पंडित जी की माता का नाम रामप्यारी था। दीनदयाल जी के जन्म के ढाई वर्ष बाद ही उनके पिता का निधन हो गया । जब दीनदयाल जी साढ़े छह वर्ष के हुए ,तब उनकी माता का भी निधन हो गया । फलतः उनका पालन पोषण उनके मामा श्री राधारमण शुक्ल ने किया जो गंगापुर (राजस्थान) स्टेशन पर फ्रंटियर मेल के गार्ड थे । दीनदयाल जी ने हाईस्कूल की परीक्षा सीकर से ,इंटरमीडिएट की परीक्षा पिलानी के बिरला कालेज से तथा बी.ए. की परीक्षा कानपुर के सनातन धर्म कालेज से की थी । इन सभी में वह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे।
जनसंघ तथा संघ में कार्य :-
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1937 में दीनदयाल जी कानपुर में संघ के स्वयंसेवक बने । 1942 में वह लखीमपुर में संघ के जिला प्रचारक बने। 1947 में उत्तर प्रदेश के सह प्रांत प्रचारक के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। इस तरह प्रमुखता के साथ उत्तर प्रदेश उनका कार्यक्षेत्र बना । उन्होंने पंचजन्य साप्ताहिक तथा स्वदेश दैनिक पत्रों के संपादन का कार्य भी किया जो संघ के मुखपत्र थे ।
जब उत्तर प्रदेश में जनसंघ बना तो पंडित दीनदयाल जी को उत्तर प्रदेश जनसंघ का कार्यभार सौंपा गया । किंतु जब बाद में 21 अक्टूबर 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की अधिकृत घोषणा हुई तथा दिसंबर 1952 में अखिल भारतीय जन संघ का प्रथम अधिवेशन हुआ तब दीनदयाल जी को जनसंघ का अखिल भारतीय महामंत्री बनाने की घोषणा हुई। इस तरह दिसंबर 1952 से फरवरी 1968 के 15 वर्षों में उन्होंने जनसंघ के मंच से भारत की राजनीति तथा इस नाते राष्ट्र निर्माण की अपनी तर्कशुद्ध तथा विचार आधारित कार्यशैली प्रस्तुत की ।
दीनदयाल जी चुनाव लड़ने के लिए राजनीति में नहीं आए थे । वह पद के आकांक्षी नहीं थे किंतु जब पार्टी ने एक बार एक उपचुनाव में उनको चुनाव मैदान में उतारने का निश्चय कर लिया तो दीनदयाल जी मना नहीं कर पाए । किंतु चुनाव में भी सिद्धांतों की अस्मिता बनाए रखने का उनका आग्रह बराबर रहा। दीनदयाल जी का जैसा कि स्वभाव था ,वह चुनाव प्रचार में भी शांत बने रहे । उनसे कहा गया कि कुछ तीखा प्रहार कीजिए तो उन्होंने कहा कि मुझसे यह नहीं होगा ।आप कहें तो मैं चुनाव से हट जाऊँ ?
इसी तरह उपरोक्त चुनाव में प्रतिद्वंदी राजपूत था । उसने जातिवाद का सहारा लिया बताते हैं । किसी ने पंडित जी से कहा कि आप ब्राह्मणवाद चला दीजिए। सुनकर पंडित जी वास्तव में क्रोधित हो गए और लाल पीले होकर बोले कि सिद्धांत की बलि चढ़ा कर जातिवाद के सहारे मिलने वाली विजय सच पूछो तो पराजय से भी बुरी है। ऐसी विजय हमें नहीं चाहिए । राजनीतिक दल के जीवन में एक उपचुनाव कोई विशेष महत्व नहीं रखता, किंतु एक चुनाव में जीतने के लिए हमने जातिवाद का सहारा लिया तो वह भूत सदा के लिए हम पर सवार हो जाएगा । (वही खंड 7 , प्रष्ठ 37)
बहुधा जबकि हर क्षेत्र में विजय तथा सफलता ही महत्वपूर्ण मानी जाती है, पराजय का महत्व समझाने का कार्य दीनदयाल जी जैसा सिद्धांतनिष्ठ व्यक्ति ही कर सकता है। चुनाव उनके लिए पद पाने का माध्यम नहीं था। यह तो उनके लिए विचारधारा के विस्तार की साधना है । अगर विचार की ही बलि चढ़ा दी तो फिर चुनाव का अर्थ ही क्या रह जाता है ? इस तरह दीनदयाल जी अपने सारे जीवन में लड़ा गया एकमात्र चुनाव हार गए मगर सत्यवादिता तथा सिद्धांत – निष्ठा के जिस धरातल पर उन्होंने चुनाव लड़ा ,उससे हार कर भी उनका कद बहुत ऊँचा हो गया था। जीवन में पराजय मिले या विजय ,अपने ध्येय की ओर निष्ठा से कदम बढ़ाते रहो ,यह चलना ही महत्वपूर्ण है मानो यही दीनदयाल जी का संदेश था।
राजनीति राष्ट्र के लिए :- दीनदयाल जी की राजनीति राष्ट्र के लिए थी। उनका मानना था कि राजनीति भी अंततः राष्ट्र के लिए ही होती है । राष्ट्र का विचार त्याग दिया अर्थात राष्ट्र की अस्मिता, इतिहास, संस्कृति एवं सभ्यता का विचार ही नहीं किया तो राजनीति किस काम की ? (वही खंड 5 , प्रष्ठ 67 )
हमारे राष्ट्र नायक कौन ?:-
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इस तरह राष्ट्र की सेवा करते – करते ही दीनदयाल जी राजनीति में आए और सब को उनका यही सदुपदेश रहा कि राजनीति राष्ट्र के लिए करो । इसका अर्थ यह हुआ कि एक राजनीतिक कार्यकर्ता को सदैव राष्ट्र की अस्मिता का ध्यान रखना पड़ेगा। यह महत्वपूर्ण प्रश्न है कि राष्ट्र की अस्मिता किस रूप में प्रकट होती है ।.अपना इतिहास, अपनी संस्कृति ,अपनी सभ्यता, अपने महापुरुष, इनसे हमारा प्रेम ही राष्ट्रप्रेम है। इनकी अस्मिता को चोट पहुँचाने वाला कोई भी कार्य राष्ट्र की अस्मिता पर चोट कही जाएगी । इस तरह अगर किसी कृत्य से राष्ट्रीय महापुरुषों का अपमान होता हो या उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहुँचता हो तो यह राष्ट्रीय अस्मिता के लिए एक चुनौती बन जाना चाहिए । कारण कि महापुरुषों में ही देश बसता है तथा महापुरुषों के जीवन और विचारों के माध्यम से ही कोई राष्ट्र अपने आप को अभिव्यक्त करता है । अब प्रश्न यह है कि राष्ट्रीय महापुरुष किसको मानें ? किसको अपना कहें और किसको पराया कहें ? हजारों वर्षों के इस देश के इतिहास में अनेकानेक महत्वपूर्ण व्यक्ति हुए हैं परंतु उनमें से किस-किस पर श्रद्धा रखते हुए उन्हें पुष्प चढ़ाएँ ?-इस प्रश्न का उत्तर दीनदयाल जी ने कुछ इस प्रकार खोजा कि जिन्हें हम संघर्ष का नायक मानते हैं वह हमारे महापुरुष हैं तथा जिन के विरुद्ध वह संघर्ष किया गया था वह हमारे महापुरुष नहीं हैं। इसी कसौटी पर उन्होंने अकबर के स्थान पर महाराणा प्रताप को ही देशभक्त माना और कहा कि अकबर को अपना मानें तो उसके विरुद्ध लड़ते हुए राणा प्रताप को देशभक्त कहा ही न जा सकेगा और राणा प्रताप, शिवाजी, छत्रसाल, दुर्गावती को देशभक्त कहना हो तो उन सब को जिनके विरुद्ध यह देश भक्त लड़ते रहे ,पराए ही मानना पड़ेगा। अकबर महान होगा ,किंतु वह हमारा नहीं था। जब हम कहते हैं कि हजार वर्ष की पराधीनता से हम मुक्त हुए तो इसका सीधा अर्थ यही होता है कि अकबर के शासन में हम पराधीन थे ।” (वही ,खंड 6 पृष्ठ 91 )
ऐसा खरा – खरा राष्ट्रवादी चिंतन केवल उसी मनीषी की वाणी से प्रकट हो सकता है जो वोट बैंक की संकुचित परिधि से ऊपर उठ गया। मिश्रित संस्कृति के नाम पर इतिहास के नायकों तथा खलनायकों को एक ही कोटि में रहकर तथा खलनायकों के कतिपय गुणों की चर्चा के आधार पर उन्हें भी राष्ट्रीय महापुरुषों की श्रेणी में लाकर खड़ा करने का हमारे देश के सत्ता पिपासु राजनेताओं का प्रयास कितना तुच्छ कोटि का रहा है !
अखंड भारत का स्वप्न:-
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अखंड भारत की इच्छा तथा पाकिस्तान का विरोध दीनदयाल उपाध्याय के प्रिय विषय थे । पाकिस्तान के संबंध में उनकी स्पष्ट राय थी कि 1947 में भारत और पाकिस्तान यह दो अलग अलग देश बनने की बात सिर्फ इतनी है कि मुगल काल से हमारी मातृभूमि परतंत्र थी ,उसका एक भाग स्वतंत्र हो गया और एक फिर से गुलाम हो गया।” (वही ,खंड 6, पृष्ठ 91 )
दीनदयाल जी पाकिस्तान को मात्र एक राष्ट्र नहीं मानते थे, वह उसे एक विचारधारा मानते थे । ऐसी विचारधारा जिससे भारत के प्रत्येक राष्ट्रवादी को लड़ना ही होगा । पाकिस्तान उनकी दृष्टि में भारत विरोध की विचारधारा का नाम है । उनका मत था कि:-
“जो पाकिस्तानवादी होता है ,वह यहाँ के लोकजीवन से झिझकता रहता है और उसके पास नहीं फटकता। संपूर्ण भारत पर प्रभुत्व स्थापित करने की लालसा उसके मन में सदैव रहती है । इसीलिए भारतीय परंपरा की प्रत्येक बात से नाता तोड़कर वह अपनी एक स्वयं निर्मित संस्कृति और परंपरा कल्पित करता है । इसी राजनीतिक आकांक्षा का सजीव स्वरूप पाकिस्तान है । पाकिस्तान की केवल एक पृथक राजनीतिक सत्ता होती तो विशेष चिंता की कोई बात नहीं थी किंतु पाकिस्तान केवल एक पृथक राजनीतिक सत्ता नहीं है । हिंदुस्तान के ऐतिहासिक राष्ट्रीयत्व के साथ नाता तोड़ने वाली एवं शत्रुत्व की भावना से ओतप्रोत विजातीय राष्ट्रीयता में उसका विश्वास है ।”(वही ,खंड 5 ,प्रष्ठ 133)
पाकिस्तान तथा उसकी मानसिकता का जैसा चित्रण पंडित दीनदयाल उपाध्याय में किया है उसमें एक एक शब्द पूर्णतः सटीक है। भारत की संस्कृति ,भारत का इतिहास, भारत के महापुरुष ,भारत की परंपरा सभी कुछ तो पाकिस्तान नामक विचारधारा को अप्रिय है। इन्हीं सब बातों से पाकिस्तान बना था। इस विचारधारा का विरोध करना जहाँ एक ओर दीनदयाल जी जरूरी समझते थे, वहीं दूसरी ओर वह भारत-पाकिस्तान के एकीकरण के हिमायती थे।
बहुतों को यह पहेली समझ में नहीं आएगी कि यह व्यक्ति एक साँस में पाकिस्तान तथा पाकिस्तानी विचारधारा का विरोध करता है तथा दूसरी साँस में अखंड भारत की बात करता है । ऐसा कैसे संभव है? अखंड भारत के मायने भारत-पाकिस्तान का मिलन ही तो है ? जी नहीं। अखंड भारत में पाकिस्तान और भारत का मिलन नहीं होगा । अखंड भारत में भारत और भारत का मिलन होगा । जिस दिन पाकिस्तान अपने अस्तित्व से पाकिस्तानवाद निकाल देगा, प्रथकतावाद को तिलाँजलि दे देगा और भारत के साथ एकरस हो जाएगा ,भारत-पाकिस्तान के एकीकरण का वही का क्षण होगा । यह जो प्रथकतावाद है तथा अल्पसंख्यक – बहुसंख्यकवाद की विभाजनकारी मनोवृति है, उसका दीनदयाल जी ने इसीलिए विरोध किया । जनसंघ के माध्यम से दीनदयाल जी ने अपने सपनों के एकात्म- भारत के निर्माण का प्रयत्न किया था ।उनका जनसंघ बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यक की अवधारणा को अस्वीकार करता था तथा “एक देश, एक संस्कृति तथा एक जन” के सिद्धांत को मानता था। जनसंघ की विचारधारा को स्पष्ट करते हुए उन्होंने मत व्यक्त किया था कि पाकिस्तान के निर्माण के पश्चात अब अलगाव की भावना को हवा देने वाली बातों के स्थान पर उसको समाप्त करने के उपाय करने चाहिए। उन्होंने जनसंघ के माध्यम से धर्म के आधार पर विशेष अधिकार माँगने और देने की प्रणाली का विरोध किया । (वही ,खंड 3 ,प्रष्ठ अट्ठासी)
प्रथकतावाद को तुष्टीकरण की नीति के आधार पर बल देकर शांत करने के मूल में जो आत्मविघातक तत्व छुपा है ,उसे पहचानने में दीनदयाल जी को देर नहीं लगी। उन्होंने गहरे मंथन के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि भारत का विभाजन वास्तव में राष्ट्रीय एकता के नाम पर किए गए भ्रांत प्रयासों की पराजय है । उन्होंने यह भी निष्कर्ष निकाला कि भारत विभाजन का सीधा साधा अर्थ यही है तुष्टीकरण एकता का साधन नहीं बन सकता । उनका प्रश्न था कि क्यों नहीं हमने राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यक तथा बहुसंख्यक वाली यह समस्या सदा के लिए समाप्त कर दी ? क्यों हमने फिर से उन्हीं को प्रवृत्तियों को सिर उठाने का अवसर दिया जिनके कारण देश का विभाजन हुआ था ? धर्म के नाम पर राजनीतिक मांगों को आगे बढ़ाने वाली जो लत हमारी राष्ट्रीय एकता के मूल पर ही प्रहार कर गई थी ,उसे हमने आगे भी क्यों चलने दिया ? ( वही ,खंड 5 , पृष्ठ 129 )
एकता में अनेकता:-
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अपने राष्ट्र जीवन में पृथकतावाद के निरंतर पोषण के कारण जो विकृतियाँ आती गई ,उन्हें ही दीनदयाल जी ने अपने जीवन और विचारों द्वारा रेखांकित किया । दीनदयाल जी ऐसे चिंतक थे ,जो घटनाओं का चित्रण मात्र नहीं करते थे। वह घटनाओं की समीक्षा करते थे, उनके कारणों की गहराई में जाते थे और वह दुर्घटनाएँ फिर न हों, उनके उपाय सुझाते थे । भारत विभाजन के मूलभूत कारण तुष्टीकरण को देश की जनता के सामने रखने का भी उनका प्रयत्न इसी दिशा में किया गया कार्य था ।वह जिस विचार को अनुचित मानते थे और जिस कार्य को देश को नुकसान पहुंचाने वाला मानते थे ,उसकी आलोचना अवश्य करते थे । वह राजनीतिज्ञों के इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे कि भारत के विभिन्न वर्गों के स्वतंत्र अस्तित्व को मानते हुए उनके बीच एकता तथा सौमनस्य का प्रयास हो । वह मानते थे कि इन अलग-अलग वर्गों के स्वतंत्र अस्तित्व को मानकर उनके तुष्टीकरण की नीति पर चलते हुए उनकी अस्मिता एवं स्वार्थ को जब तक बढ़ावा दिया जाएगा ,राजनीति गलत दिशा में चलती रहेगी। उनका मानना था कि संपूर्ण भारत एक है ,भारत की सारी जनता एक है और इस एकता को अनुभव करते हुए ही यहाँ रहना है ।अनेक अवयवों को जोड़कर शरीर का निर्माण नहीं होता ।वास्तव में एक शरीर के अनेक अवयव होते हैं ।”(वही ,खंड 2 , प्रष्ठ 81 )
यह अनेकता में एकता के स्थान पर एकता में अनेकता का विचार ही था जिसका पंडित जी ने प्रतिपादन किया था। राष्ट्रीय एकात्मता पर प्रमुखता से विचार करते हुए ही उसके किसी अवयव के उत्थान पर विचार होना चाहिए यही उन्हें अभीष्ट था। दीनदयाल जी की राजनीति तर्कशुद्ध, वैचारिकता से ओतप्रोत तथा सही मायने में राष्ट्रीयत्व से संचालित राजनीति थी।
डॉ राम मनोहर लोहिया के साथ संयुक्त पत्रक :-
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जनसंघ को अखिल भारतीय दल का स्वरूप देते हुए वह उस के माध्यम से कांग्रेस पार्टी का विकल्प पूरे देश में तैयार कर रहे थे। स्वाभाविक था कि गैर -कांग्रेसवाद को आधार मानकर राजनीति करने वाले संघर्षशील समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया से उनकी कुछ पटरी अवश्य बैठती । अप्रैल 1964 में पंडित दीनदयाल उपाध्याय तथा डॉ राम मनोहर लोहिया का एक संयुक्त पत्रक जारी हुआ था जिसमें तीन बातों की चर्चा थी ।पहला पूर्वी पाकिस्तान जो अब बांग्लादेश बन गया है, में हिंदुओं पर हो रहे दंगों को रोकने के लिए भारत सरकार से प्रभावी कार्यवाही की मांग करते हुए यह कहना कि पाकिस्तान के हिंदुओं के जानमाल की रक्षा करना और करवा लेना भारत सरकार का कर्तव्य है । दूसरा यह कि हमारे राष्ट्रीय जीवन के आधार मूल्यों के आधार पर हमारी पवित्र परंपरा रही है कि सभी मतों के नागरिकों के स्वतंत्रता और सुरक्षा को अबाधित रखें । तीसरा यह कि दोनों महानुभावों ने संयुक्त पत्रक में कहा कि हमारी मान्यता है कि हिंदुस्तान पाकिस्तान के यह कृत्रिम भेद बनाए गए हैं । इसी संयुक्त पत्रक में भारत और पाकिस्तान का एक महासंघ बनाने का विचार आरंभ किया जा सकेगा ऐसा कहा गया था । किंतु उसकी शर्त यही थी कि दोनों देश सारी स्थिति का एकत्रित विचार करें तथा परस्पर सद्भाव निर्मित हो सके। (वही ,खंड 6 ,प्रष्ठ 84-85)
डॉ राम मनोहर लोहिया सदृश तपे हुए समाजवादी नेता के मुख से भारत पाकिस्तान का विभाजन कृत्रिम बताया जाना दीनदयाल जी के विचारों के विस्तार की दिशा में एक महत्वपूर्ण सफलता थी ।मात्र अल्पसंख्यकवाद में घिरा सामान्य नेता इसे स्वीकार भी नहीं करता किंतु डॉक्टर लोहिया राष्ट्रीय दृष्टिकोण से विचार करने वाले नेता थे। तभी उनकी पटरी पंडित दीनदयाल उपाध्याय से बैठ सकी। देश के दो बड़े नेताओं के संयुक्त पत्रक ने अप्रैल 1964 में कैसी खलबली मचाई होगी ,इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। यह ऐसा समय था जब बांग्लादेश अपने निर्माण की प्रक्रिया के गर्भकाल से गुजर रहा था किंतु दीनदयाल जी उसकी धड़कनों को किसी कुशल चिकित्सक की भांति स्टेथिस्कोप लगाकर भली-भांति सुन रहे थे ।पूर्वी पाकिस्तान की जनता की पीड़ा तथा उसके साथ होने वाले अत्याचारों को उन्होंने अनुभव किया। कोई भी सरकार किसी दूसरे देश में जाकर वहाँ हस्तक्षेप करने में हिचकती है । इस हिचकिचाहट को दूर करने में इस संयुक्त पत्रक ने जो योगदान दिया तथा भारत के पूर्वी पाकिस्तान( बांग्लादेश) के पक्ष में सहानुभूति और समर्थन का जो माहौल बनाया ,उसकी कल्पना ही की जा सकती है ।
राष्ट्रीय विचारों के प्रचार का सफरनामा :-
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अपने राष्ट्र जीवन को राष्ट्रीयत्व के भावों के विस्तार के साथ निरंतर सुवासित करने का महान कार्य अगर किसी एकमात्र राजनीतिक विभूति द्वारा किया गया है तो वह पंडित दीनदयाल उपाध्याय ही हैं। अन्य किसी राजनीतिज्ञ की जीवनी खोजी जाए तो उसमें उसके द्वारा लड़े गए चुनाव तथा प्राप्त किए गए पदों का विवरण ही उसकी जीवनी होगा किंतु दीनदयाल जी का जीवन मानो राष्ट्रीय विचारों के प्रचार का ही सफरनामा था । उस में कहीं भी किसी पद को प्राप्त करने की न तो अभिलाषा है और न ही हर्ष है। सुख-दुख ,हर्ष -विषाद ,जय- पराजय इन सभी स्थितियों में अपने आप को मानो उन्होंने एक जैसा बना लिया था। पाकिस्तानवाद के प्रति वह कटु हैं, अल्पसंख्यक बहुसंख्यक का भेद उन्हें अप्रिय है , सब मनुष्यों में समान आत्मा की विद्यमानता का शंखनाद भी वही करते हैं। एकता में अनेकता को प्रश्रय देना उन्हें प्रिय है ,तुष्टीकरण उन्हें विष जान पड़ता है। प्रथकतावाद के पोषण में उन्हें राष्ट्र -विभाजन की ओर एक और कदम उठाया गया लगता है। भारत के महापुरुषों की पहचान तथा उस पहचान के मूलभूत कारणों की यह मनीषी खोज करता है और राष्ट्र के प्रति आस्था का एक बिंदु महापुरुषों के प्रति आस्था भाव मानता है ।अपने और पराए का विश्लेषण करने में जिसे देर नहीं लगती ।जो मानो भारत की आत्मा को फिर से जगाने के लिए ही आया था । जिसके जीवन का एक ही मिशन था कि यह राष्ट्र सम्मान के साथ फिर से दुनिया में खड़ा हो और अपने पुरातन वैभव को फिर से प्राप्त करे । विभाजन की दीवार को ढहा देना जिसे अभीष्ट है और भारत के भीतर राष्ट्रीयत्व की ऐसी समुद्र -सी लहरें वह प्रवाहित होते देखने का आकांक्षी है जिसमें इस देश के भीतर व्याप्त सारी संकुचितताएँ स्वयं मिट जाएँ, ऐसी विराट राष्ट्रीय दृष्टि सिवाय पंडित दीनदयाल उपाध्याय के और किसकी हो सकती है !
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