दिहाड़ी मजदूर
दिहाड़ी मजदूर
वैद्य हकीम चिकित्सक,
अधिवक्ता अभियंता।
आज भी नाम इन्हीं का होता,
होती बहुत महनता।
दैनिक श्रमिक ये कहे खुद को,
लगता है बेमानी।
मनमर्जी के साहब हैं ये,
नहीं इनकी कोई सानी।
वेतन भोगी खुद को दे गर,
श्रमिक का उपमान।
कुछ हद तक ये सही भी लगता,
सीमित वेतनमान।
काले कोट सफेद कोट की,
होत न हालत माली।
सारी रहती भरी नोट से,
कोई जेब न खाली।
मनमर्जी के साहब लोगों,
आय होत ज्यों वर्षा।
पैसों की कभी रहे न तंगी,
मन रहता नित हर्षा।
तथाकथित के दैनिक श्रमिक,
मस्त रहो, रहो टल्ली।
सरकारी नौकर हैं श्रमिक
नहीं उड़ाओ खिल्ली।
आप सभी हो गढ़ पैसों के,
कहलाते हो हजूर।
चांदी कटती बवनों हफ़्ते
कहाँ दैनिक मजदूर।
सतीश सृजन