दिव्य अंगार
कौन जिम्मेदार है?
समाज की व्यथा का।
रग -रग दुखाती
दुखान्त कथा का।
विद्रूपता, विद्रोह
बन गए हैं अंग।
सिमटी है जीवन की
उल्लासित तरंग।
हर मोड़ हर डगर पर
नहीं सुरक्षित वह घर पर।
नारीवाद का स्वर मुखर
रोक न पाया खूनी खंजर।
रंगा आता है अखबार
दब जाती उसकी चीत्कार।
किस से करें वह पुकार
खुलकर जीने का नहीं अधिकार।
वंदनीय नमनीय
कहते हैं सब उसे।
फिर यह जहरीले सर्प
क्यों डस जाते उसे बार-बार।
अब उठो जागो
भरो तुम हुॅंकार।
कोई नहीं आएगा
करने मदद तुम्हारी।
खुद ही करो तुम
खुद का उद्धार।
भस्म कर दो बनकर काली
हर असुर हर दानव को।
हे नारी बनकर शक्ति
जला लो हृदय में दिव्य अंगार।
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)