दिवाली
दिवाली
तुम अर्थहीन हो अब
क्योंकि तुम्हारे दियों में तेल नहीं
बारूद भरा जाता है
जिससे प्रकाश नहीं होता
होता है धमाका
बहुत ज़ोर का!
पटाखे जलाने में
हम इतने अभ्यस्त हो चुके हैं
कि हमारे हाथ नहीं जलते
मगर जल जाते हैं
रिश्ते, प्रेम, करुणा, दया और एकता जैसे शब्द
निरीहता से!
यातायात सुलभ होने से
शहर की वैयक्तिकता
अब गाँव तक आ पहुँची है
शाम को हर द्वार पर
दिया तो रख दिया जाता है जला कर
मगर साथ ही
बंद कर दिए जाते हैं किबार, भीतर से;
कि कोई अंदर न आने पावे!
-आकाश अगम