दिल मे आग लगी
सोचा उससे मिलकर पूछूँगा कहा ये बाग़ लगी
खंजर बोये थे पर ये ,तो सरसों की साग है लगी
आँखों पर चश्मा था तो हरा हरा ही दिखता था
पर मुझे देखकर कमबख्त के दिल में आग लगी
घर से दूर निकल तो सोचा था की अपना होगा
पर दर्पण चमकीला था चेहरे धुंधले सपना होगा
दीवारो से बातें करते रहते बिस्तर हंसके हरी भरी
यादो के इस जंगल में इंसानियत घूम रही मरी मरी
टुकड़ा टुकड़ा रात और सिमट रहा जिन्दा इंसान
मेरी गजलों की क्या किस्मत चल बता रे भगवान
तू भी मेरा मैं भी तेरा चल फिर दे दे मेरा बचपना
सुनले तू अशोक की पुकार क्या तू लोहे का बना
गर तू चाहता की दुनियां में रहे खुदा तू भी मशहूर
उठा पत्थर तोड़ धर्म की दीवार कर दे चकनाचूर
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से