ख़ार की नोक से मरहम
काश, तुमने भी हमें दिल में बसाया होता
फिर समंदर न कभी आंख में आया होता
कोई मयख्वार कहां होश में आया होता
आपने जाम निगाहों से पिलाया होता
जख्म पर जख्म हमें खूब दिए हैं तुमने
खार की नोक से मरहम न लगाया होता
हाकिमे वक़्त की फिर खूब नवाज़िश होती
सामने उसके अगर सर को झुकाया होता
आज तहज़ीब हमारी भी सलामत रहती
पाठ किरदार का बच्चों को पढ़ाया होता
तुम उजालों के निगहबान अगर थे ‘अरशद’
तो चरागों को लहू दे के बचाया होता