दिल गुनहगार था
दिल गुनहगार था ऑंखों ने सजा पाई
मैं लैट आई थी ऑंखें जाने कैसे भूल आई
तमाम रात उसी की याद में सिसकती रही ऑंखें
मैं हाॅंथ उठा के आंसू भी न पोंछ पाई
दिल के धौंकनी में सुलगता रहा इक नाम रात दिन
मैं चाह कर भी उस नाम का पीछा करना न छोड़ पाई
~ सिद्धार्थ