दिल का ज़ख़्म
कई पन्ने मुड़े मिले
बरसों पुरानी डायरी के
कई पन्नों के बीच-बीच
गुलाबों की सूखी पत्तियां थीं
या यूं भी कहा जा सकता है
उन पन्नों के बीच में
यादों और वादों की
तमाम अर्थियां थीं
मेरी इन नजरों को
अब नहीं था जिनका इल्म
बिना चश्मा लगाए ही
कुछ ही मिनटों में देख डालीं
दशकों पुरानी फिल्म
उस डायरी में वह
वादे भी तहरीर थे, जिन्हें
हमने मिलकर तोड़ा था
बाद में उन वादों ने
हमें तोड़ डाला था
वक्त के थपेड़ों ने तोड़ा था
वक्त ने ही मरहम लगाया था
जिंदगी में एक बार मर चुके थे
यादों-वादों के जख्म भर चुके थे
एक लम्हे ने क्या कर दिया
एक डायरी के चंद पन्नों ने
दिल का जख्म फिर हरा कर दिया…।
@ अरशद रसूल