दिलों में किसी के सख़ावत नहीं है
अना हर किसी में शराफ़त नहीं है
दिलों में किसी के सख़ावत नहीं है
पुराने ज़माने की चाहत नहीं है
नये दौर से कुछ शिकायत नहीं है
अदालत भी झूटी न आदिल ही सच्चे
मिले न्याय कैसे सदाक़त नहीं है
अज़ां हो कभी आरती की तरह से
दिखी मुझको ऐसी मुहब्बत नहीं है
सुनें बैठकर रंजो-ग़म भी किसी के
जहाँ में किसी को भी फ़ुरसत नहीं है
निज़ामत करे ज़ह्’न कैसे अभी फिर
अभी दिल की मेरे सदारत नहीं है
है लहज़ा भी तीखा ज़ुबां और कडुवी
सलीका, अदब कुछ नफ़ासत नहीं है
तमन्ना है पाने की तुझको हमेशा
नहीं कह सकूँगा कि हसरत नहीं है
अभी तो सफ़र से लौटा है ‘आनन्द’
क़दम इक उठाने की ताक़त नहीं है
शब्दार्थ:- सख़ावत = दान देने की इच्छा, आदिल=जज, सदाक़त=सच्चाई, निज़ामत=संचालन, सदारत=अध्यक्षता, नफ़ासत =बढ़ियापन/सुन्दरता
डॉ आनन्द किशोर