*दिलों के खेल*
डा ० अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
दिलों के खेल
दूरियाँ बढाते जा रहे हो, बात क्या है
हमसे नज़रें चुरा रहे हो, बात क्या है।
क्या छुपा रखा है दिल में, बात क्या है
कह सको तो कह ही डालो बात क्या है।
प्यार के खेल में शरम कैसी
क्यों कसमसा रहे हो , बात क्या है।
दूरियाँ बढाते जा रहे हो, बात क्या है
हमसे नज़रें चुरा रहे हो, बात क्या है।
क्यों करे हम भरोसा आपका
दिलों के खेल में काम क्या दिमाग का।
चोट है भी के नहीं दिखलाइये
या खामखाँ आंसूं बहा रहे हो, बात क्या है।
देखिये फ़ुरसत तो हमको है नहीं
क्यों नोन तेल लकड़ी में उलझा रहे हो।
आइना देखो तो जाके, फिर जताना
इश्क है ये इसमें हुनर का काम क्या।
दूरियाँ बढाते जा रहे हो, बात क्या है
नज़रें हमसे चुरा रहे हो, बात क्या है।
है निभाना तो निभाओ वरन टसुए मत बहाओ
जानते है हम तुमहे, जन्म से, एक की दो दो लगाना।
क्यों करे कैसे करें हम भरोसा आपका
दिलों के खेल में काम क्या दिमाग का।
है अरुण अब जीस्त की ऊँचाई पर
एक पल में छोड़ देगा इसमें ज्यादा सोचना क्या।