दिखते नहीं परिंदें।
दिखते नहीं परिंदे उन दरख्तों की शाखों पर |
नाजिल हुआ है कैसा कहर तुम्हारें मकानों पर ||1||
वीरानियां ही वीरानियां है हर सम्त ही शहर में |
ऐसा क्या गजब हुआ यहां के सारे ठिकानों पर ||2||
राख ही राख है बस्ती के हर जर्रे-जर्रे में यहां |
आग है ये कैसे लगी सबके खेत खलिहानों पर ||3||
तुमको तो सब मिला था वसीले में रसूल के |
फिर कैसे तुम सब आ गये अजाबे निशानों पर ||4||
मुब्तिला हुऐ हो शायद सब कबीरा गुनाहो में |
वरना होता नहीं अजाब मुहम्मद के दीवानों पर ||5||
उसको खबर है सबकी वह जानता है सबको |
उसके फरिश्ते मुश्तैद है हर शक्स के शानो पर ||6||
ताज मोहम्मद
लखनऊ