दास्तान-ए-मोहब्बत
मैं कोई शाम सा ठहरा ही रहा ,
तू वक़्त सी थी गुजर जो गयी ,
मेरे दिल पर तुम्हारा ही तो पहरा ही रहा
लबों से छू लू ऐसी कोई बात नही ,
तुम्हें एक पल ना सोचू ऐसी कोई रात नही ।
तू बूँद सी बादलों से बरसती रही ,
मैं दरिया बन यू ही बहता ही रहा ।
मांगू जो कभी खुदा से जिक्र तेरा ही रहा ,
हर ख़्वाब जब आयी तो फ़िक्र तेरा ही रहा ।
मेरी धड़कनों को जो थाम ले वो बस तुम ही हो ,
मेरी हर ख़्वाब को भी बुन ले बस तुम ही हो ।
धड़कनों को भी धड़कना अब जरुरी नही ,
ये सब लिखना मेरी कोई मज़बूरी नही ।
:-हसीब अनवर