दास्तान ए जंगल
तरसते रहे सवारी को,पर घुड़सवार कहाते हैं।
हम जंगली हैं भैया तभी तो गंवार कहलाते हैं।
बुलंदिया छूने के लिये ,हमारा आसरा छीन लिए।
हमारे पेड़ कट गए ,हमारे जंगल छीन लिए।
अब हमें इंसानो में गिनते नही ,अंशों में बांट दिया।
कभी रंग से, कभी जात से कभी धर्मो में बांट दिया।
अब तो हम आदमी कहाँ बस बोट बैंक कहाते हैं।
हम जंगली हैं भैया तभी तो गंवार कहाते हैं।
एक वक्त था ,कभी महुआ कभी पत्ति में जीते थे।
मजदूरी का पसीना ,नमक समझ के पीते थे।
समझदार बनाने का झूठा आस दिलाया गया।
फिर सहरों का चकाचौंध हमको दिखाया गया।
थोड़ा पढ़ लिख के जब कंधे से कंधा मिलाने लगे।
सब के साथ बैठ कर कुछ वक्त बिताने लगे।
सबने समझ लिया हम मुफ्त के पैसे लुटाते हैं।
हम जंगली हैं भैया तभी तो गंवार कहाते हैं।
हम भी तो इसी जमीन का दाना खाते हैं।
फिर हमको क्यों सब अपने से अलग बुलाते हैं।
एक ही धरती माँ की संतान है फिर कैसे भाई नही हुए।
थोड़े तज़ुर्बे में कम सही ,फिर भी तो हम सबके हुए।
हमे तो अपने पेट से ,परिवार से फुरसत नही मिलता।
मुफ्त में तो दो जून की रोटी भी नही मिलता।
एक टुकड़ा फेंककर सब मुफ्तखोर बताते हैं ।
हम जंगली हैं भैया तभी तो गंवार कहाते हैं।
हम भी तो सबके अपने है,कभी सीने से लगाया करो।
हमारे भी मसले कभी मिल के सुलझाया करो।
एक ही मिट्टी महकती है सब के रगों में ये बात जान लेना।
कोई गैर नही है,सब अपने है आज ये पहचान लेना ।
सब मिल के चलेंगे तो ,जमाना बदल देंगे।
नया सवेरा ,नए सपने नया इतिहास रच देंगे।
पर ये समझेंगे क्यों ‘देव’ सब बहकावे में आते है।
हम जंगली हैं भैया तभी तो गंवार कहाते हैं।