दास्तां ( कविता )
इतिवृत्त का क्या सुनूं मैं
गुलामी की जंजीर जहां ।
कोई औपनिवेशिक होते देखा
किसी को उपनिवेश धरा ।
साध्वी वनिता का यंत्रणा
ज्वाला में धधकते देखा ।
अस्पृश्यता व सहगमन का
कराहेना का नाद देखा ।
तांडव छाया हाशिया का
अपनों का अलगाव देखा ।
क्या कहूं उन दास्तां को
दासता क्लेश उत्पीड़न देखा ।
त्रास – सी दुर्भिक्ष काल का
सियासत आर्थिक संकट देखा ।
संप्रदायों का बहस – मुबाहिसा को
मानवीयता घातक हनन देखा ।
रक्तरंजित कुर्बानियों की दास्तां
वतन पे प्राण निछावर होते देखा ।
विरासत – संस्कृति – धरोहर प्रताप
फिरंगीयों का परिमोश होते देखा ।