दास्ताँ ऐ मोहब्बत
दिल के दरवाजे पर नजरों से दस्तक दी थी कभी,
दबे पैर आकर मेरी जिंदगी में आहट की थी कभी।
कोरा कागज था जीवन मेरा तुमसे मिलने से पहले,
कोरे कागज को भरने के लिए मोहब्बत की थी कभी।
उन दिनों मेरी तन्हाई को आबाद किया तेरे साथ ने,
बैठो पल दो पल तुम साथ मेरे, यूँ दावत दी थी कभी।
इजहार ऐ मोहब्बत तुमने किया था नजरों से अपनी,
दिल के पन्ने पर मोहब्बत की लिखावट दी थी कभी।
कैसे भूल सकते हो तुम राजाओं सा स्वागत किया था,
दिवाली नहीं थी पर दिवाली सी सजावट की थी कभी।
मेरे दिल की सल्तनत पर आज भी तुम्हारा ही राज है,
इसी सल्तनत को पाने के लिए बगावत की थी कभी।
कैसे रहे तुम मेरे बिन, तुम्हारे जाने से लाश बन गयी मैं,
तेरे जाने के बाद खुदा से तेरी शिकायत की थी कभी।
यकीं था मोहब्बत और खुदा पर लौट कर आओगे तुम,
तुम्हें पाने को सुलक्षणा खुदा की इबादत की थी कभी।
©® डॉ सुलक्षणा अहलावत