दायरा दरिया पार हो गया
दायरा दरिया पार हो गया
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स्वतन्त्र जो था एक परिन्दा
वक्त की गिरफ्त में आ गया
परिन्दा स्वतन्त्रता का आदि
पिंजरे में बंद है,कैद हो गया
ऊँची ऊँची उड़ाने था भरता
नीड़ में वो मोहताज हो गया
कलरव मीठा राग था गाता
अब वो है ,बेजुबान हो गया
शोरगुल से आसमां था ढ़ाता
मुक बधिर वो इंसान हो गया
आँखों में अहम का नशा था
नशा अब दरकिनार हो गया
कल तक काम का आदमी
पलभर में वो बेकार हो गया
वक की चोट होती है भारी
अब वो जख्म नासूर हो गया
सुखविन्द्र दायरे में रहा करते
वो दायरा दरिया पार हो गया
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)