दानवीर सुर्यपुत्र कर्ण
मैं अबोध क्या भूल मेरी, गंगा में छोड़ दिया केशव,
मां बेटे के बंधन को, पल भर में तोड़ दिया केशव।
मां कुंती के जाए को, राधेय से जोड़ लिया केशव
और अंश था जिसका मैं, उसने मुख मोड़ लिया केशव
जिसने जन्म दिया मुझको, उस मां ने ही आघात किया,
वरदान मिला जिसको केशव, अभिशाप मान कर त्याग दिया,
सूतपुत्र शब्दो से नित नित, बोध कराया जाता था
इस समाज में केवल केशव, शुद्र पुकारा जाता था।
माता कुंती की ममता का, थोड़ा तो था अधिकार मुझे,
प्रेम नही पर सदा मिली, बहते अश्रु की धार मुझे,
इतने वर्षो तक माता कुंती को, मेरी याद नहीं आई,
जो त्याग दिया उस बेटे पर, किंचित भी दया नही आई
दुर्योधन ने गले लगा, मुझको स्वीकार किया केशव,
मित्रधर्म से भी बढ़कर, भाई सा प्यार दिया केशव।
विश्व के धिक्कार से,मेरा हृदय भयभीत था,
इस अभागे के लिए, एक वो ही मीत था,
तो भला कैसे विमुख हो जाऊ, इस संग्राम से,
ऋणवान है जीवन मेरा, इस मित्रता के दान से,
आज उसके धर्म का, अवसर मेरे ही हाथ है,
अर्जित किया जो शौर्य वो भी, कौरवो के साथ है,
हर विपत्ति संग सहना, मित्रता का सार है
गर बह गया इस मोह में, जीवन मेरा बेकार है।
अब सदा गाता रहूंगा, मित्रता के गान को,
मैं सहज स्वीकारता हूं, इस महा संग्राम को,
अब नही बाते तनिक भी, इस समर का ज्वार हो,
संबध सारे तोड़ के, पाण्डव सभी तैयार हो
अब नही विचलित रहूंगा, व्यर्थ के अपमान में,
सिद्ध करने आ गया हूं, इस महा संग्राम में,
रवि यादव, कवि
कोटा, राजस्थान
9571796024