“दाग़”
गलत चल रहा था सही से,
अचानक एक हादसा हुआ।
हुई मैं बेहतर रू-ब-रू,
हकीकत से मेरा राब्ता हुआ।
वो बदसूरती के बहाने से
ख़त्म कर गया ताल्लुक़ मुझसे…
दाग़ मेरे तो देह में था,
उसके मन का क्या हुआ…?
बुरा लगा मुझे बहुत,
सब ने कहा बुरा हुआ।
अश्क बहाते देखी मां,
और पूछ बैठी क्या हुआ?
मन टूटा, मनोबल टूटा,
या खोखला इरादा हुआ!
मीठे झील सी नज़रें तेरी,
फिर पानी क्यों खारा हुआ?
सिसकियां संभाली मैंने
जब पतली अश्रुधारा हुआ।
तब जा के मुंह से निकल पाया,
“मां! मेरा रंग क्यों काला हुआ?
खूबसूरती यहां सिर्फ तन से है,
साफ मन यहां इंकारा हुआ।
क्यों दी मुझे ऐसी रंगत
जिसका हर जगह तमाशा हुआ?”
सीने से लगा के बोली मां,
“बस बहुत बोल ली ज्यादा हुआ।
भूल गई कान्हा को तू,
जो जग में सबसे प्यारा हुआ?
अरे! गोरा रंग मिला पैरों तले,
श्याम केंसूँ सिर सजा हुआ।
बेटी.. ! है मेरी तू खान की हीरा,
उस जोहरी को धोखा हुआ।”
ओसमणी साहू ‘ओश’ रायपुर (छत्तीसगढ़)