*दांव आजमाने लगी हैं*
दाँव आजमाने लगी हैं सियासतें,गाँव में नगर में।
कब तक चुप रहके बैठेंगे अब, कौओं के शहर में।।
मिठास दिखती थी हलक में तव ,पहरुओं के वो
अब् फ़लक ने भी मिलाली मिशरी, मीठे ज़हर में।।
धोखा खाते हैं भलेमानस ,इसी पहल कदमीं का
डूब जाते हैं बहती हुयी कभी,इस उथली नहर में।।
यह बक़्त आ गया है दोश्तों, दिमाग़ी कशरतों का
बिछा सकता है कोई रोड़ियां,कब अपनी डगर में।।
ना जाने क्यों दुशमन बना आदमी अपनी कौम का
रहता हूँ देखता सींकचों से,वो अपनी खुदी क़बर में।।
ग़र कुदरत है कहीं साहब तो अकल भी दे दे इन्है
हम भी चल सकें वेखौप होके अब् अपने सफ़र में।।