दहेज की बीमारी को…
शरेआम बेटे-बेटियों की आज यहाँ लगती बोलियाँ,
गाँव-शहर और गली-कूचे से आती है सिसकियाँ ।
देख ये बेटा है गौरा साधुराम का,
20 कीले है जमीं पर न किसी काम का ।
सिर्फ़ ख़ातिर रिटायर्ड बाप की,
आस रहती मोटी रक़म की ।
बेटी चाहे हो अँगूठा टेक,
बताते उसने अभी मेट्रिक पास की ।
गर परिवार ग़रीब का बेटी को पढ़ा लेता,
फ़िर उसकी शादी ख़ातिर धन कहाँ से लाता ।
कर देता वो लाचारी में इंतज़ाम दहेज़ का,
साहूकार के कर्ज़ को नाहक कैसे चुकाता ।
कौतूहल सा रहता है सगे-खास संबंधियों में,
मिला है अच्छा दाम या लड़का बिका कौड़ियों में ।
संस्कार ये देखें न बस पैसा इनको दिखता है,
इंजीनियर ,डॉक्टर हो या अध्यापक सब पैसों में बिकता है ।
बन बेटी का पिता क़भी, जी लेना इस लाचारी ।
“आघात” तू सोच समझ लेना, इस दहेज की बीमारी को,