दहशत
मेरी आंखों से दहशत का कभी मंज़र नहीं जाता।
किया है जिस्म घायल रूह से भी डर नही जाता।।
करूँ क्या मैं मेरे दिल को न तब तक चैन आएगा।
जो सीने में दरिंदों के मेरा खंजर नही जाता।।
कि अब तो और भी जीने की चाहत है मेरी लोगों।
नज़र के सामने जब तक दरिंदा मर नहीं जाता।।
लजायी कोख तो तुम ही उसे कोई सजा देदो।
वो बहशी लूटकर अस्मत क्या वापिस घर नहीं जाता।।
श्रीमती ज्योति श्रीवास्तव