दहलीज़
“माँ जी… ओ माँ जी…!”
सपना बहु की आवाज सुन जैसे सावित्री अचानक नींद से जागी हो। अब तक जो अपनी नातिन सुरभि को अंगने में खेलते देख खो सी गयी थी अपने बचपन की यादों में। वह भी तो घर की लाडली थी पर उसने जीवन का वो एक फैसला क्या लिया की क्या भैया क्या पिताजी। माँ का तो रो-रो कर बुरा हाल था पर उसने अपनी चाहत के आगे किसी की परवाह नही की। अंत मे सबके मनुहार और सावित्री के बार-बार के इनकार को सुनते- सुनते तंग आकर पिताजी ने तो यहाँ तक कह दिया कि ‘जा चली जा अब पर एक बात कान खोलकर सुनती जा कि अगर अपनी मर्जी से शादी की तो हम सबसे तुम्हारा रिश्ता खत्म हो जाएगा, फिर भूल कर भी इधर का रुख मत करना, हम समझ लेंगे की तू हम सबके लिए मर गयी है और तू भी हमें मरा हुआ जान ले, जीते जी तो क्या मेरे मरने के बाद भी तू मत आ जाना, जाती है तो जा पर मेरी बद्दुआ भी लेती जा, तू कभी भी खुश नहीं रह पाएगी।’तब वह यह नही समझ पाई थी कि किसी की बद्दुआ का क्या असर होता है, और खाश करके उसकी बद्दुआ जो उसे खुद से भी ज्यादा प्यार करता हो, जो आजीवन किसी के अच्छे के लिए खुद कष्ट झेलता रहा हो वह कितने कष्ट में होगा जब उसके मुँह से ऐसे शब्द निकलने लगे। ऐसे आह की कल्पना शायद ही किसी ने की होगी।
सावित्री आज भी अक्सर इस ऊहापोह में पड़ जाती है कि उस दिन जो मैं सबसे बिमुख हो कर, घर की दहलीज लाँघ आयी थी वह फैसला गलत था या सही, पता नहीं। पर मैंने सोचा था कि अपने जीवन का फैसला मैं खुद लूँगी, किसी और को मैं अपने जिंदगी का फैसला नहीं करने दूँगी। क्या परिणाम रहा ऐसे निर्णय का जिसके कारण आज बेटा, बहु, नातिन तो साथ हैं पर कहीं न कहीं माँ, बाबूजी, भैया व भाभी का साथ छूट गया और जिसके भरोसे वह इन सबको छोड़ कर चली आयी थी वह भी तो उसके आशा के विपरीत उसे और उसके दूध पीते बच्चे को सिर्फ इस कारण छोड़ दिया कि उसके घरवाले को वो पसन्द नही थी क्योंकि वह बिना दहेज लिए जो आ गई थी, तो अब वो अपने घरवालों के पसन्द से दूसरी शादी करके अपने और अपने परिवार वालों को खुश रखना चाहता था और शायद अब अपने घर बहोत खुश होंगा, पर क्या? मैं खुश हूँ! मैंने अब तक अपना जीवन जो न जाने कितने कष्ट झेलने के बावजूद भी अपने तरीके से जिया है, क्या वह सही था?
सावित्री बैठे- बैठे अतीत की गहराई में डूब सी गयी कि कैसे उसने अपने प्रेम के आगे अपनी माँ- बाबुजी के हर अरमानों पर पानी फेर आयी, उसके बाबूजी उसे कितना चाहते थे, उन्हें छोड़ कर आने के बाद जब चिंताग्रस्त होकर वो बीमार पड़ गए थे तब भी ये उनके प्यार को नही जान पाई और न ही तब जब उसे उनके गुजरने की खबर मिली।काश वह तब भी समझ गयी होती और अपनी गलती मान वापसी की राह धर ली होती तो शायद उसे माफ़ी मिल भी गयी होती पर वह तब भी अपनी भूल को समझ उसे सुधारने की तो दूर अपने उस लुभावने स्वप्नलोक से निकलने तक को भी तैयार नही हुई वह होश में तो तब आयी जब एक दिन उसे पता चला कि जिसके कारण वह अपनों को रोता छोड़ आयी थी अब वही उससे ऊब गया है और उसके साथ रहना नही चाहता, यह जान सावित्री पर तो जैसे पहाड़ ही टूटकर गिर पड़ा हो, कितना रोई थी वह उसदिन, कैसे वह गिड़गिड़ाते हुए सरे बाजार कभी अपने प्यार की दुहाई देती फिर रही थी तो कभी गोद मे उठा कर अपने नवजात शिशु पर रहम खाने की भीख माँग रही थी पर अब उसकी सुनने वाला कोई नही था, जो सुनने वाले थे सावित्री तो दो साल पहले ही उनकी न सुनकर चली आयी थी, और आज वह जिसके लिए अपनों को छोड़कर आयी थी वही अपने परिवार वालों की सुनकर उसे छोड़कर जा रहा था।
सावित्री को अब भी अक्सर अपने माँ- बाबुजी के साथ गुज़रे पलों की याद आती रहती थी, और वह सोचती रहती थी कि काश अगर उसने ऐसा निर्णय नही लिया होता तो आज भी उसके रिश्ते उसके अपने परिवार के अन्य लोगों के साथ बने रहते। आज उसका भी मायका होता, आज उसे भी कोई बेटी, कोई बहन, कोई बुआ, कोई ननद और कोई मौसी बुलाने वाला सगा होता पर उसने सही या गलत जो भी चुना था अब उसके पास उसे स्वीकार करने के अलावा अन्य कोई चारा नही था। वह सोच रही थी कि कैसे इस जिंदगी के आपाधापी में थोड़ा और पाने के चक्कर में अपने पीछे कितना कुछ छोड़ आयी थी। वह भूल रही थी की जीवन में सब कुछ नहीं मिलता, और कई बार अपने द्वारा लिए गए निर्णय का भुगतान स्वयं को ही करना पड़ता है।
सावित्री की नज़रें खिड़की से बाहर जा रही थीं, जहाँ उसकी नातिन सुरभि खेल रही थी। उसने हौले से सुरभि को आवाज लगाई सुरभि अपना खेल छोड़कर अंदर आई और सावित्री के पास आकर बैठ गई। सावित्री ने उसे प्यार से थपकियाँ देते हुए पूछा, “सुरभि, तुम्हें तुम्हारी दादी की सीख याद है ना?” सुरभि ने हाँ में सर हिलाया और कहा, “हाँ, दादी जी, बिल्कुल याद है जो आपने बताया कि अपने जीवन में कई निर्णय खुद ही लेने पड़ते हैं परंतु हर निर्णय लेने से पहले यह ध्यान में जरूर रखना चाहिए कि उससे हमें जो प्यार करतें हैं उनको कष्ट न झेलना पड़े।”
सावित्री की आँखों में आँसू आ गए और वह सुरभि को कसकर गले लगाकर सोचने लगी कि काश मैंने भी यह सीख किसी से बचपन मे ले लिया होता, तो आज वो मेरे कितने काम आया होता। आज मुझे मेरे खुद के फैसले पर इतना मलाल नहीं होता, पर अब वह जान गयी थी कि जीवन में किसी दहलीज को एक बार पार कर लेने के बाद वापसी के रास्ते कितने तंग हो जाते हैं।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”(सर्वाधिकार सुरक्षित २४/१२/२०१९)