दस्तूर
दस्तूर
निभाना नहीं था तो पास क्यों आते गए,
साथ चलना ही था तो क्यों रुलाते गए।
ज़िंदगी भर साथ यूँ ही चलता रहेगा,
तो दूरियां यूँ बेवजह क्यों बढ़ाते गए ।
चाहते तुम भी थे चाहते तो हम भी हैं,
फिर बेवजह इल्ज़ाम क्यों लगाते गए।
हर वक़्त यूँ हीं कर तकरार की नुमाइश,
जाने दो न कहकर क्यों न सुलझाते गए।
करते ही रहे रुसवाई बात बात में,
उम्र भर हमें यों ही क्यों सताते गए ।
भ्रम था कि अब शायद मुश्किलें ख़त्म हुई,
सदा अपनी नज़रों से यूँ ही क्यों गिराते गए।
अब तो शायद इंतिहा हो गई सब्र की,
मौन में ही अलग दस्तूर क्यों बनाते गए।
डॉ दवीना अमर ठकराल ‘देविका’