दस्तक
रात की ओस में,
नहाई ये पीत आभा-
सारे मन के कल्मष की,
कलुष मिट गई है।
हवाओं में मादक,
संगीत से भरा है-
भोर भीबसन्ती ,
होने लगी है ।
साँझ की काकोली में,
पंछियों की खुशी-
बन के राग चहुँ ओर,
झरने लगी है।
अनजाने उल्लसित सा
होता जाता है मन,
प्रसन्नता अनोखी अब-
मचलने लगी है।
कर्म का संदेश,
कण कण में जागा है-
दस्तक बसन्त की,
अब होने लगी है।।