दस्तक
बसा ली है दुनिया कहीं दूर जाकर,
नहीं पास कोई भी बच्चे हमारे।
कहाँ अब रही गीत गज़लों की रातें,
बुढ़ापे की दस्तक हुई तन के द्वारे।
दवाई बिना नागा खाने लगा हूँ,
सुबह शाम मंदिर भी जाने लगा हूँ।
चला दूर मौसम बहारों का मुझसे,
यही बात खुद बताने लगा हूँ।
धरे ताखे पर बाम पट्टी व मरहम,
क्रीम इत्र पउडर से कब से जुदा हम।
हटी सेज से बूटी तितली की चादर,
नहीं है गिला हो अनादर या आदर।
कहाँ से चले थे कहां तक है जाना,
कहां होगी मंजिल जब छूटे जमाना।
हुआ है शुरू ये सफर पालने से,
थमेगा चिता पर यही है फ़साना।
दिये में बचा है अभी तेल काफी,
चिरागों की लौ से पता चल रहा है।
अभी वक्त है उठ इबादत की खातिर,
धरे हाथ पर हाथ क्यों मल रहा है।
गया जो गया आगे को तुम निहारो,
करो बन्दगी और बुढ़ापा सवारों।
दिया जो हुकम तेरे मुरशिद ने तुझको,
करो दिल से खिदमत और आपा न हारो।
सभी ने बीमारी बुढापा सहा है,
न कोई जहां में सदा जो रहा है।
इबादत खुदा की बस करता चला चल।
फकीरों ने सबसे यही तो कहा है।
न चांदी से गेशू न मुखड़ा निखारो,,
ये सूरत नहीं अपनी सीरत संवारो।
किसी कामिल मुरशिद से करके, मुहब्बत।
पकड़ हाथ उसका और जन्नत सिधारो।