*दशहरे पर मछली देखने की परंपरा*
दशहरे पर मछली देखने की परंपरा
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रामपुर, 5 अक्टूबर 2022 दशहरा । “मछली देख लो …मछली देख लो” की आवाज को सुनकर सुबह रंगभरी हो गई । बचपन से दशहरे के दिन हर साल सुबह-सुबह यह मधुर आवाज कानों में गूॅंजती रही है। झटपट बाहर जाकर देखा, तो हाथों में बर्तन लिए दो छोटे बच्चे जल में तैरती हुई मछली दिखाने के लिए उपस्थित थे । उत्साह से भर कर उन्हें घर के भीतर प्रवेश कराया।
हमारा पोता कल रात वायदा करवा के सोया था कि जब मछली वाले आऍं, तो उसे जरूर उठा देना । लिहाजा आवाज देकर पोते को उठाया गया । वह ऑंख मलता हुआ बाहर आया, लेकिन मछलियॉं देखकर प्रसन्न हो गया। फिर सबने मछलियों के बर्तन में पैसे डाले।
” कहॉं से लाते हो यह मछलियॉं ?”- हमने मछली वालों से पूछा ।
यह दोनों बच्चे भाई-बहन थे । भाई ज्यादा फुर्तीला था । बोला “यहीं तालाब से पकड़कर लाते हैं।” ‘यहीं’ से उसका आशय स्थानीय तालाब से था ।
“डर नहीं लगता ?”-हमने पूछा ।
“डरना कैसा ? “-वह अब मुस्कुरा रहा था ।
“पहले तो काली-काली मछलियॉं आती थीं। अब रंग-बिरंगी मछलियॉं आने लगी हैं। क्या यह तालाब से मिल जाती हैं ?”
वह बोला “हॉं ! तालाब की ही हैं।”
” क्या सचमुच की हैं ?” हमारे कहने पर अब उसने मछलियों को हिला कर दिखाया । वह सचमुच जीवित मछलियॉं थीं।
हमारा अगला प्रश्न था “क्या शाम को इन्हें फिर से तालाब में छोड़ दोगे ? ”
बिना हिचकिचाए हुए मछली वाले ने जवाब दिया “हॉं ! छोड़ देंगे । वैसे यह मॉल में भी चल जाती हैं ।”
मॉल -शब्द सुनकर यह स्पष्ट हो गया कि मछली वाले में दूर तक सोचने का हुनर है । उसमें मछली पकड़ने का साहस भी है, गली-गली घूम कर मछली दिखाने की परंपरा से जुड़ने का उत्साह भी है और लंबी छलॉंग लगाकर उन मछलियों को मॉल तक ले जाने की कार्ययोजना भी उसके मस्तिष्क में है । मछली देखना सुखद अनुभव रहा लेकिन उससे भी ज्यादा उन बच्चों की बहादुरी और उत्साह देखकर बहुत अच्छा लगा ।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
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