दशरथ मांझी का शिव संकल्प
पीड़ा सहते सहते मैंने, उठा लिया था बीड़ा
गहलौर पर्वत राह में सबकी, बना हुआ था रोड़ा
पीड़ा थी जन-जन की, मेरी पीड़ा ने फोड़ा
तोड़ दिया था पर्बत, जो बना हुआ था रोड़ा
कई किलोमीटर के चक्कर से, सब आते जाते थे
दुर्गम मार्ग पहाड़ी रास्ता, आते जाते गिर जाते थे
अत्रि और वजीरगंज तक, 70 किलोमीटर की दूरी थी
पर्बत घूम कर जाना हम सबकी मजबूरी थी
गर्भवती महिलाएं बच्चे, बीमार कई मर जाते थे
कई कि.मी. के चक्कर से, वजीरगंज तक जाते थे
एक दिन में लकड़ी लेने को, मैं पर्वत के उस पार गया
खाना पानी लेकर फाल्गुनी आई, पर्वत उसको
निगल गया
ठोकर खाकर गिरी थी वह, दवा नहीं मिल पाई थी
आखिर मेरी प्राण प्यारी, काल के गाल समाई थी
उसी दिन मैंने गहलौर पर्बत, चीरने करने की कसम खाई थी
जैसे मेरी मरी फाल्गुनी, अब कोई न मर पाए
पर्वत काट राह बनाऊंगा, चाहे जान ही मेरी जाए
फाल्गुनी खोने की पीड़ा को, मैंने हथियार बनाया था
छैनी और हथोड़ा मैंने, शिव संकल्प से उठाया था
रोज सवेरे नियमित मैं, पर्वत काटने जाता था
दिन भर भूखा प्यासा, छैनी हथौड़ा चलाता था
मेरा यह जुनून, जमाना मुझको पागल कहता था
भूख प्यास परिवार गरीबी, मुझको रोक न पाई
एक दिन मेहनत रंग लाई, पर्वत चीर के राह बनाई
२२ बरस लगे गेहलौर पर्वत चीर दिया
अत्रि और वजीरगंज को, आधा घंटे में बदल दिया
अत्रि और वजीरगंज जाने, पूरा दिन लग जाता था
वही रास्ता मांझी के कारण, आधा घंटे में नप जाता है
अपने शिव संकल्प से, माझी सफल हो पाया
सारी दुनिया में मांझी ने, अपना नाम कमाया
माझी अपने जूनून के कारण, पागल भी कहलाए
लगे रहे वे मनोयोग से,सफल तभी हो पाए
माझी प्रेरणा हैं जन मन की,आदर है उनका
जन जन में
अमर रहेंगे माझी, दुनिया के जन मन में
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
(दशरथ मांझी ग्राम गहलौर एक छोटा सा गांव जिला गया बिहार के रहने वाले एक मजदूर थे , उन्होंने अत्रि एवं वजीरगंज कस्बा जाने के लिए छैनी हथौड़े से अकेले ही पर्वत को तोड़कर सड़क बनाई थी जो आज मांझी के गांव के साथ ही 60- 70 गांव के लोग प्रयोग करते हैं)