दरख़्त
गज़ल
【दिल से “)】
ख़्वाब कुछ यूं बसते हैं
न पूरे होते हैं कभी
न ज़हन से ही निकलते हैं
ख्वाब लाज़मी सा क्यों तू……
फ़ासला सी रही जिंदगी
कभी अपनों के दरम्यां
कभी दरख्तों के नीचे
फिर लाज़मी सा एक क्यों तू …….
कभी रोक लिए अरमां
कभी सी लिए सपने
कभी नम हुई आँखे
फिर लाज़मी सा एक क्यों तू……..
कभी दिन ढला कैसे
कभी चाँद को भी तरसे
कभी खुद को भूल गए हम
फिर लाज़मी सा एक क्यों तू ……..
मिशा