दर्पण!
दर्पण…………
इंसान पत्थर को भी पानी कर सकता है।
ख़ुद जाल बुन, ख़ुद ही फस्ता है।।
जिसमें हैं जवाला, धारा सा वो बेहता है।
पारस हैं वो, तप -तप के सोना बनता है।।
जल नहीं, बुलबुलों का स्वप्न देख।
फिर उन्हीं बुलबुलों से खेलता है।।
समंदर मे डूब ज्ञान संचित करता है,
दीवाना है मस्ती मे आगे बड़ता है।
हज़ारो अहसास लीन है उसमे,
मस्तक पर तेज़, नैनो मे सैलाब लिये चलता है।।
मनुष्य अगर एक बार ठान ले तो,
पृथ्वी – आकाश एक कर सकता है।
ख़ुद जाल बुन, ख़ुद ही फस्ता है।।
भागीरथी गंगा धरा तलपे लाया था ,
रावण ने हिमालय पर्वत हिलाया था।
सब समय और बुद्धि का खेल है,
अहंकार मे ही सब कुछ गवाया था।।
साम – दाम – दण्ड – भेद के चलते,
महाभारत तक का मुख दिखलाया।
एक मात्र अर्जुन के चलते,
सबने गीता का ज्ञान हैं पाया।।
समय का पहिया न कभी रुकता है।
इंसान पत्थर को भी पानी कर सकता है।।
इंसान पत्थर को भी पानी कर सकता है।
ख़ुद जाल बुन, ख़ुद ही फस्ता है।।
सेजल गोस्वामी
New Delhi,
northwest delhi.