दर्द सुर्खी है
दर्द सुर्खी है मेरी ताज़ा ग़ज़ल है जिंदगी
रेत की दीवार शीशों का महल है जिंदगी
चिलचिलाती धूप में बहते पसीने की तरह बेसबब बेकार सस्ती है सहल है जिंदगी
जिंदगी और मौत के इस खेल में ए दोस्तों मौत लाजिम है मगर उसकी पहल है जिन्दगी
क्या बताएं क्यों इसे ढोने की आदत पड़ गई
याद रामायण है और टूटी रहल है जिंदगी
वक्त ने जिस दौर को बोझिल बना कर रख दिया
क्षुब्ध उस माहौल में मीठी चुहल है जिंदगी
संग से भी जियादा खुरदुरी और सख्त ये फूल से नाजुक कभी कोमल सजल है जिंदगी
@
डॉक्टर इंजीनियर
मनोज श्रीवास्तव
14 वी रचना