दर्द छोटा करते जाना है
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औंधा पड़ा आसमान गाँव में ।
समझ में न आने लायक बड़ा है।
क्या है प्रयोजन विशाल होने का?
शायद इसके सारे कमियों को
छुपाने हेतु जी-जान से पड़ा है।
गाँव में पगडंडियाँ हैं ,रास्ते नहीं।
गाँव में दुकानें हैं बाजार नहीं।
गाँव में बच्चे हैं,स्कूल नहीं।
गाँव में श्रमशील भुजाएँ हैं,काज नहीं।
गाँव में मंदिर है,देवता नहीं।
गाँव में हौसला है,अवसर नहीं।
क्या और सुनाये ये गाँव,
कथाएँ बहुत है,
सुनने,गुनने वाला कोई श्रोता नहीं।
इस नगर में आसमान निहारने
तरसा हुआ आदमी,
गाँव का,
खड़ा होता है खिड़की के पास।
एक चौकोर टुकड़ा है ऊपर नीला ।
कुछ समझ नहीं आता।
गाँव में सोचता था –
जल बरसाने ।
किसी देवता को उतरने के लिए रास्ता देने।
रात का अनुमान करने सप्तऋषि।
दिन का प्रहर जानने सूर्य।
दु:ख में उठाकर हाथ ऊपर,कृपा की आकांक्षा से ।
और कभी खुशी में धन्यवाद का अर्थ लिए
हाथ जोड़कर उसी देवता को।
–के सिवा
क्या काम है इसका यहाँ।
अब सोचना नहीं चाहता।
जीवन ऐसा अधूरा भी हो सकता है!
आश्चर्य,
इतने ऐश्वर्यशाली नगर में।
सारा कलरव
गुम है।
रूठा हुआ धूप।
नालियों के दुर्गंध खेलती
होली,हवाएँ।
कुएं,नदी और तालाब-
गलबहियाँ डाले
ठिठका हुआ है
नगर के नलों में।
स्वच्छ फिर भी नहीं है।
छानो तब पियो का शोर रोज
दरवाजे पर दस्तक दे जाता है।
चाँद को इतनी नींद क्यों है
और
सूरज उगता किधर,डूबता किधर है!
किताबों से पढ़कर
बताने की आयी हुई स्थिति है।
जी चाहता है
मैं एक बार देख आऊं।
कहीं मेरा दिशा-ज्ञान
न हो जाए लूला-लंगड़ा।
मन में सहसा
अजनबीपन सा अहसास हुआ।
हृदय में दर्द सा कुछ कौंधा।
देह को
शिथिल होने का अफसोस भी।
किन्तु, सोच ने सँभाला।
तर्क प्रबुद्ध हो उठा।
सुख और दु:ख ने
एक दूसरे को तरेरा।
आँखें अतीत के लिए नम हुई।
भविष्य के लिए किन्तु,
चमकना था, चमका।
सारे बिरवे गमलों में
एकाकी जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे।
नागरिक कृषि के वैज्ञानिक गुर सीख रहे थे।
कृषक नई तकनीक की कथाएँ सुन रहे थे।
उन्हें नई तकनीक बेचने कोई नही आता था।
बाजार को हैसियत पता था।
बिरवों को चिढ़ाने,गुदगुदाने या
बलपूर्वक आश्रय बांधने नहीं था
कोई खग-विहंग।
लिपटने,चिमटने कोई लता नहीं।
झाड-झंखाड़ का पता नहीं।
निर्वासित सा जीवन।
मेरा भी।
गाँव का दिन डरा हुआ निराशा से।
शहर का अनैतिक पिपासा से।
गाँव की रातें करवटें बदलती
आधे-अधूरे भरे उदर में जलती आग से।
शहर की रातें बदलती करवटें
‘घट’ जाने की आशंका के
मानसिक दाह से।
जिंदा होने का दर्द
बड़ा होता है गाँव में।
अपना दर्द छोटा करते जाना है।
इस नगर में।
हजार बार मरकर भी।
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