दर्द अपने मैं काग़ज़ पर उतार देता हूँ
सिलसिला दर्द का थम गया होता,
तू अगर मेरा ही बन गया होता,
मुश्किलें मुझको तब तोड़तीं कैसे,
सामने उनके तो मैं तन गया होता!
टूटा हूँ इतना अब तो मैं बिखरता हूँ,
हर मोड़ पर अब तो मैं फिसलता हूँ,
कोई देख ले न मेरे हालात नाज़ुक,
सबसे छुपकर ही तो मैं निकलता हूँ!
तू नहीं है मगर तेरा अहसास तो है,
जल तो पास नहीं मगर प्यास तो है,
बिन तेरे जीना भी अब कोई जीना है,
शरीर है सुप्त मगर अभी साँस तो है!
ख़ुद अपने ग़म को गले लगा लेता हूँ,
दिल के ज़ख़्मों को अब जगा देता हूँ,
बढ़ जाती है जब हद से बेबसी मेरी,
दर्द अपने मैं काग़ज़ पर उतार देता हूँ!
इक बार फिर मुझे छोड़ने को आजा,
फिर मुझको ही तो तोड़ने को आजा,
थोड़ा जीवन फिर से सँवार कर मेरा,
फिर से मुझसे मुख मोड़ने को आजा!