दर्दे दिल अपनों से बाँटें
दर्दे दिल अपनों से बाँटें
पर अपनों को कैसे छांटें
रही स्वार्थी नजर सदा ही,
कैसे खुलतीं मन की गांठें
जो आदर्श बने थे अपने
वे दूजों के तलवे चाटें
महंगाई की चली हवा तो
खड़ी हुई हैं सबकी खाटें
रिश्तों के जो बीच बनी
आओ ऐसी खाई पाटें
डॉ विवेक सक्सेना