दरिंदगी
अल्फाजों की कतार में
मेरे जिश्म की बौखलाहट
फिर भी ना लगा
किसी को आहट
आंखों से निकलें
दर्द के आंसु
फिर भी चुप थे
सारे जिज्ञासु
तड़पती सांसे मेरी
दरिंदों की भूख में
दब गई आवाज मेरी
अपनों की रुख में
बचपना लूटी मेरी
हवश की भूख में
इंसानियत ना बची अब इस
धरा की रुख़ में
दरिंदों ने खूब नोचा
नन्ही सी जान को
बेंच दिया नेताओं ने
अपने ईमान को
दरिंदों की दरिंदगी को
फांसी पर लटकाना है
वरना, ना बेटी बचाना है
ना बेटी पढ़ाना हैं।