दरमियाँ कुछ फ़ासला सा रह गया
दरमियाँ कुछ फ़ासला सा रह गया
प्यार अपना फिर अधूरा रह गया
दिख रही उस पार मंज़िल भी मेरी
दूर मुझसे वो किनारा रह गया
चाँदनी लेकर के आया चाँद भी
घर के भीतर पर अँधेरा रह गया
जिस पिटारे में फ़क़त दौलत भरी
वो ही खुलने से पिटारा रह गया
वो परिन्दा लौटकर आया नहीं
आसमाँ उसका ठिकाना रह गया
जो बुरे थे वे सभी आगे गये
सबसे पीछे जो भला था रह गया
जलजला आया था आधी रात में
जो जहाँ सोया था सोया रह गया
वक़्त भी तो इक मदारी है यहाँ
देखता सारा ज़माना रह गया
और तो ‘आनन्द’ सारे थे हुनर
बस अदब थोड़ा सलीका रह गया
– डॉ आनन्द किशोर