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19 Oct 2021 · 2 min read

दंगा –(एक)

(अरुण कुमार प्रसाद)
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आज नफरत ने मुहब्बत से, सच ही नफरत कर लिया है।
आदमी ने आदमियत से अब सच ही किनारा कर लिया है।
आज सच शैतान आकर बस गया मेरे शहर में ढाँप के मुंह।
आज फिर शैतान के कहकहे का है,शोर, खोले साँप सा मुंह।
आज फिर इंसान खुद का काट कर सिर फिर रहा सारे शहर में।
पूछता सा-“लोगे तुम या लोगे तुम” बोली लगाता हर प्रहर में।
आज रंगों में न साहस है बचा कि कलेवर पर चढ़ा ले रंग अपना।
अब किसी भी फूल में वह स्निग्धता,सुगंध या; है बंद बहना।
आदमी भयभीत अति है आदमी से आज इस गाँव,बस्ती और शहर में।
ज्यों बुझा हो बोल,वाणी हर कहानी आदमी का तीव्रतम जहर में।
गीत सारे बंद हैं,संगीत सारे हैं बजाते धुन किसी श्मशान सा चुप।
रौशनी विचलित हुई सी भागती है ढूँढती कोई अंधेरा घुप्प।
बड़ी जीवंत थी गलियाँ अभी कल इस शहर की,हंस रही थी।
बड़ी आत्मीयता से कर नमस्ते दे दुआएं बस रही थी।
अट्टालिकाओं का शहर था कल, हुआ सा खंडहर का।
इस तरह अस्तित्व मिटता है रहा,नफ़रतों से हर शहर का।
यह युद्ध का ही सिलसिला है जब हाथ में पत्थर उठा लें।
धर्म जब मजहब बने हैं हाथ ने तब हाथ में पत्थर उठाए।
दौड़ता इंसान बन शैतान अपने देवता,रब माथ में ले।
कत्ल करने लोग आतुर अपनी आत्मा का,साथ में ले।
ये जो नंगे हो रहे हैं नोंच कर हर आदमियत।
प्रश्न इसकी राजनीति,आत्मनीति,नियति,नीयत।
नफ़रतों पर तुम्हारी है खड़ी देव-दर्शन,सृष्टि-दर्शन।
कत्ल का पैगाम लेकर यूं उठो न,लो करो कुछ आत्म-दर्शन।
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Language: Hindi
184 Views
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