थाली के बैंगन या बिन पेंदी के लोटे(हास्य व्यंग कविता)
क्या कहें हम इन्हें ?
बिन पेंदी का लोटा ,
या थाली का बैंगन ।
दल बदलें परिधानों की तरह,
यह सज्जन ।
कभी खुद छोड़ जाएं दल ,
किसी बात से असंतुष्ट होकर ।
या इन्हें निकाला जाता है ,
इनके अकर्मण्यता से असंतुष्ट होकर ।
कल तक जो कहते थे अपशब्द ,
अपनी पुराने दल से हिल मिल कर ।
आज गैरों से मिलकर आग उगलें ,
कुछ तो मियां शर्म और लिहाज कर ।
ना जाने कैसे हैं चिकने घड़े ,
“कोई क्या कहेगा” यह ख्याल नही आता।
जिनके लिए कभी अपशब्द कहते थे ,
उनसे नज़रें मिलाने में संकोच नहीं होता ।
कहा है किसी शायर ने ,
कुछ तो मजबूरियां होंगी यूंही कोई बेवफा नहीं होता।
अब पार्टी के हाई कमान ने संतुष्ट न किया ,
वर्ना कोई यूं ही विभीषण और जयचंद न होता ।
पुरातन समय में यह घटना ,
कभी कभी ही होती थी ।
क्योंकि काफी हद तक लोगों में,
सहने की क्षमता होती थी ।
आखिरी क्षण तक लोग ,
अपने राजा / नायक को समझाते ,
या उसके संग समझौता करते थे।
जब नहीं बनी बात ,तो दुत्कारे जाने पर ,
ही उसका साथ छोड़ दिया करते थे ।
मगर अब लोगों में सहनशक्ति नहीं है ,
जरा सी बात का अफसाना बना देते है ।
खफा होकर किसी बात से दल बदल लेते है,
या नया राजनीतिक दल बना लेते है।
कुछ बात का बतंगड़ बनाने में ,
गोदी मीडिया की प्रमुख भूमिका होती है ।
और कुछ परस्पर एक दूजे के लिए ,
विश्वास और वफादारी की कमी होती है ।
अरे भई ! छोड़ो भी यह बातें ,शिकवा शिकायत ,
यह तो राजनीतिक दलों की रोज़ की कहानी है।
दलों से रूठे लोगों का आना जाना तो लगा रहता है,
इनका जीवन जैसे नदी के लहरों की रवानी है।