थका हुआ सुबह
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सुबह थका सा उगा।
क्या तुम्हारा भी!
नींद लेती रही करवटें
मेरे बगल में पड़ी-पड़ी।
अन्न को सोचती रही।
पानी ने बड़ा उधम मचाया।
पेट में रात भर।
फलदार वृक्षों की छाया में,
कोमल पत्तियों के नीचे
ले जाता रहा रात भर।
कल था मेरे पास
गठरी आश्वासनों की।
बेली न जा सकी रोटियाँ।
मेरे वोट के बदले मेरे पास
रोजगार आज भी है।
दिन भर
रेजगारी की तरह
बँटता रहूँगा।
शाम को,लगभग खाली हाथ।
आज मैं रोउंगा रात भर
कल ‘गब्बर’ के साथ।
कैसे रुकूँ?
गब्बर मेरा शौक नहीं इलाज है,
इसलिए।
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