थकते नहीं हो क्या
थकते नहीं हो क्या
उतर आते हो रोज
बिन बुलाए,छत पर…
निहारता हूं तुम्हे जब
लगती हो इक परी सी
दुल्हन सी, ओढ़ चुनरी
बिन बुलाए, रथ पर…
सांझ भी कह न सकी
रात भी सह न सकी
वो उतरती जलपरियां
बिन सजाए, नग पर…
कुंकुम सी मदमासी
रुनझुन रुनझुन रुत
छमछम छमछम यूं
बिन बजाए, पग पर…
श्रृंगारित यह आंचल
धवल धवल मांसल
अलंकार पागल हुए
बिन बताए, नथ पर…
क्या बोलूं, क्या लिखूं
क्या सोचूं, क्या गुनूं
वैधव्य शशि शिशिर
बिन जगाए, जग पर..
इस अनमने सफर पर
क्यों, मैं विश्राम कर लूं
देखूं , कुछ और प्रहसन
बिन निभाए, नभ पर….
सूर्यकांत