तक़दीर
तक़दीर मेरी मुझसे,सौ खेल रचाती है
पल में ही उठाती है,क्षण में ही गिराती है
जीवन की डगर बड़ी,कांटों से भरी है ये
ये राह दिखाती है,और खुद ही बहक जाती है
तक़दीर मेरी——–
खुद सम्भल सकूं मुझमें,इतनी भी कहाँ हिम्मत
ये आस जगाकर के,खुद दूर चली जाती है
तक़दीर मेरी ———-
जीवन के पथ पर मैं,जब भी बढ़ना चाहूँ
आलंबन बनकर के,फिर खुद ही बिखर जाती है
तक़दीर मेरी ——
मैं राही उस रस्ते का,जिसकी न कोई मंजिल
ये मृग मरीचिका बन ,फिर खुद ही बिगड़ जाती है
तक़दीर मेरी मुझसे सौ खेल रचाती है
पल भर में उठाती है और क्षण में गिराती है।
तक़दीर मेरी—–